Friday 2 March 2012

ग़ज़ल कहना मुनासिब है यहीं तक


ग़ज़ल कहना मुनासिब है यहीं तक
समीक्षक-डॉ. पशुपतिनाथ उपाध्याय डी.लिट्.
हिन्दी ग़ज़ल में दुष्यंत कुमार के पश्चात अनेक ऐसे ग़ज़लकार हुए हैं जिन्होंने ग़ज़ल काव्यरूप में अभिवृद्धि, समृद्धि एवं गौरवशाली परंपरा में महत्वपूर्ण भूमिका निर्वहन की है. सम्प्रति ग़ज़ल थोक में लिख जी जा रही है जिसमें टेक्चर और स्ट्रक्चर का परिवर्तन होना स्वाभाविक था. शमशेर बहादुर सिंह, देवराज दिनेश, मणिकवर्मा, इकबाल उमर, डॉ. अनंतराम मिश्र, डॉ. गणेशदत्त, कुंअर बेचैन, नीरज,डॉ. उर्मिलेश, अवध नारायणमुदगल आदि ग़ज़लकारों की श्रृंखला में डॉ. महेन्द्र अग्रवाल ने ग़ज़ल काव्य रूप पर नव्य वैचारिक क्रांति के संदेशवाहक के रूप में अपनी अलग पहचान बनाई है. उनकी ग़ज़ल काव्य रूप पर प्रकाशित कृतियों में पैरोल पर कभी तो रिहा होगी आग, शोख मंजर ले गया, ये तय नहीं था, बादलों को छूना है चांदनी से मिलना है, क़बीले की नई आवाज़ आदि के पश्चात ग़ज़ल कहना मुनासिब है यहीं तक गत वर्ष प्रकाशित हुई है.सम्प्रति नई ग़ज़ल दिशा और दशा पर भी डॉ. अग्रवाल की नई सोच परिलक्षित हुई है.ग़ज़ल में अनुभूति की गहराई, परिवेश की व्यापकता एवं विषयवस्तु की विविधता दृष्टव्य है. आज की हिन्दी ग़ज़ल का परिवेश पूर्व की अपेक्षा अधिक जटिलताओं, विदू्रपताओं, विसंगतियाओं एवं बिडम्बनाओं से भरा पड़ा है. साम्प्रदायिकता, आतंकवाद, जातिवाद, विदेशी षड्यंत्र, हथियारों की होड़, भाषा समस्या आदि तथ्यों ने ग़ज़ल को प्रभावित किया है तथा ग़ज़लकारों को ग़ज़ल लिखने के लिए विवश किया है, बाध्य किया है. नई ग़ज़ल वस्तुत हिन्दी ग़ज़ल ही है क्योंकि पूर्व में ग़ज़लें उर्दू भाषा के क्लिष्ट एवं रूढिग़त शब्दावली से आपूरित थीं तथा एक विशेष परिवेश जन्मा थीं. हिन्दी ग़ज़ल इस संकुचित परिवेश से मुक्त होकर व्यापक धरातल पर अधिष्ठित हुई. उसने परंपरानुमोदन के नाम पर मात्र स्ट्रक्टर ढांचा एवं कुछ सीमा तक ट्रेक्चर-बुनावट तथा शिल्प में लयात्मकता का अनुसरण किया. वण्र्य विषय की व्यापकता-विविधता, भाषायी संस्कार एवं ग़ज़ल का परिमार्जन करके नया संस्कार दिया गया तथा उसमें अपेक्षित परिवर्तन किया गया. मूल ढांचा हिन्दी ग़ज़ल का अपना है, वह उर्दू या अन्य भाषाओं पर अवलम्बित नहीं है. यही कारण है कि जनमानस को उद्वेलित करने की क्षमता-दक्षता, लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति प्रतिबद्धता एवं लोकजीवन की झांकी की जीवंतता अद्यतन ग़ज़लों मिलती है. 
ग़ज़लकार को परिर्वतन की चिंता है, परंतु हर क़बीला सरदारी सौंपना चाहता है जिसके परिणाम स्वरूप वह ससंकोच ग़ज़ल का शुक्रिया अदा करता है. ग़ज़लकार का अपना ग़ज़ल कहने का अलग अंदाज़ है क्योंकि कभी थे सबसे आगे हम पिछड़ते ही गए अब तो, नए ढब जिन्दगी को ये निराले ही नहीं आए. (पृष्ट 24)ग़ज़लकार समरस समाज की स्थापना का आकांक्षी है, अभिलाषी है तथा बादल बरसाकर सबको पानी देना चाहता है. वह निष्पक्षता तथा समता-ममता का आग्रही है. अंधेरों में दीपक जलाने, सफर में ठिकाना आने, तजुर्बों से सीखने, आग बुझाने तथा बिछुड़ऩे का बहाना बताने वाले ग़ज़लकार डॉ. महेन्द्र अग्रवाल हैं जिन्हें अब तक कमाना भी नहीं आया. (पृष्ट 26) सुंदर, ख़्वाब,  देखने वाले ग़ज़लकार स्वयं सीमा में रहकर औरों को भी हदों में रहने की नसीहत देता है. वह किसी भी रूप में सीमा और मर्यादा को उल्लंघन करना नहीं चाहता. वह मर्यादित आचरण की अपेक्षा करता है.
व्यंग्योक्ति के माध्यम से तलवार और हथियार के साथ प्यार कराने वाले, सियासी लोगों से ज़ख़्मों पर मरहम की आशा न रखने वाले, मुहब्बत में सफ़र करने वाले तथा मुसीबतों में साहस से काम लेने वाले ग़ज़लकार को अपने कलमकार पर पूरा भरोसा है, यकीन है तथा उम्मीद है, क्योंकि भरोसा है, सफर में शायरी तू साथ ही रहना
कभी ग़ज़लें बना देगी मुझे मुमताज़ मानो भी (30) नफरत से मुहब्बत को बचाने वाले, शहर को आबाद देखने वाले, अहले अदब रहने वाले तथा सदैव खुदा को याद रखने वाले रचनाकार ने हौंसला तोड़ऩे वाले सच्चे आईना को भी तोड़ऩे का आह्वान किया है तथा ख्यालों के घड़ा को फोड़ऩे मेें उसका यकीन है. वह अकेले ही सफर तय कर रहा है क्योंकि वह दर्दे-दिल सफर में है, साक्ष्य है
दर्द है दिल में, दवा कोई नहीं है
हर जगह आदर्श, नैतिकता, नज़ीरें
यार सांचे में ढला कोई नहीं है
मंच की मुहताज, खालिस शायरी सा
सिर्फ शायर हूं अदा कोई नहीं है.(पृष्ठ 35)
कानून व्यवस्था की अव्यवस्था पर दुख प्रकट करने वाले, खिल्ली उड़ाने को बुरा मानने वाले, अपने क़बीले की नई आवाज़ ध्वनित करने वाले, हिन्दी ग़ज़ल को नई ग़ज़ल की संज्ञा से अभिहित करने वाले तथा शायरी की आगाज़ का अहसास करने वाले ग़ज़लकार ने अवश्य ही उर्दू शब्दावली के साथ हिन्दी ग़ज़ल को एक अलग पहचान  दी  है जिसकी साक्ष्य हैं ये पंक्तियां-
गज़ल में कुछ नया कहना, गज़ल को कुछ नया देना
बस इतना सोच के रखा, अलग अंदाज़, मानो भी
मेरी उर्दू में शायद कुछ मेरी हिन्दी झलकती है
इसी तहजीब पर अब भी है मुझको नाज़ मनो भी
नव्यता में भव्यता और दिव्यता देखने का अभिलाषी गज़लकार ने नई बात कहने का प्रयास किया है. यही कारण है कि उसे परंपरानुमोदन में विश्वास नहीं है. उन्हें नया चेहरा बनाने, नई चिडि़य़ा बनाने, नई दुनिया बनाने तथा नया लहजा बनाने में आनंदानुभूति हुई है, होती है. हुनर, असर, सफर, शजर आदि के साथ रचनाकार का खेल अपना है, घर अपना है तथा शहर अपना है क्योकि उसे अंधानुकरण में विश्वास नहीं है, पुरातन परंपरागत ग़ज़ल से हटकर अपनी अलग लीक पर चलने का उसका अदम्य साहस सराहनीय है, प्रशंसनीय है. मीर और गालिब को अपना आदर्श मानते हुए गज़लकार ने नई सोच विकसित की है. 
उसकी स्पष्ट अवधारणा है कि, 
ग़ज़ल ग़ज़ल ही रहे, इस तरह ग़ज़ल लिखना
दिखा गए हैं कई लोग ये कला पहले
नई जुबान, नया जिस्म, नए जेवर भी
नई ग़ज़ल है,नई है ग़ज़ल कहा पहले
मैं रूठ जाऊं मनाती है आज भी मुझको
नहीं हुई है कभी भी ग़ज़ल खफा पहले. (पृ. 42)
 कथ्य और शिल्प दोनों स्तरों पर ग़ज़लकार नवीनता का आग्रही है. पुरानी सोच, पुरानी रूझान को ग़ज़लकार ने पुरानी पीढ़ी के लिए छोड़ दिया है तथा ग़ज़ल की खामियों को भी रेखांकित करने से ग़ज़लकार ने कोई चूक नहीं की है. उसकी सहजानुभूति दृष्टव्य है-
हाथ धोकर पड़ गए पीछे ग़ज़ल के सब यहां
शायरी भी इसलिए देखों दगीली है बहुत (पृ.46)
 चोरी, हत्या, रहजनी आदि की घटनाओं के मूल में नई सरकारी ढीली नीति पाई गई है. टूटते परिवार, टूटते रिश्ते, टूटते दाम्पत्य सूत्र, चिकित्सकों की अर्थाकर्षण की प्रवृत्ति, नई पीढी की स्वच्छंदवृत्ति आदि ने रचनाकार को दुखी कर दिया है.ग्राम्य सभ्यता और संस्कृति से रचनाकार संतुष्ट है क्योंकि वहां उसे सामंजस्य, सभ्यता, भाईचारा तथा पारस्परिक सद्भाव देखने को मिला है. स्वर्णिम अतीत उसे मनोहर और मनमोहक लगता है फिर भी नये वक्त में वह नई धार धरने का इरादा रखता है. 
समय के साथ बहने वाले, दिल की बात जुबां से कहने वाले, निजामत को बदलने की क्षमता रखने वाले तथा आधुनिकता को स्वीकारने वाले ग़ज़लकार ने उसी सीमांकन में ग़ज़ल कहने की हिम्मत जुटाई है क्योंकि स्पष्टोक्ति है, ग़ज़ल कहना मुनासिब है यहीं तक, उसूलन क़ाफि़या उतरे रवी में (पृष्ठ 56) प्रजातांत्रिक मूल्यों की चिंता रचनाकार को है तथा नई सरकार की कारगुज़ारियों से वह क्षुब्ध है क्योंकि वह जनहित में नहीं है. इंसानियत रोती हुई नजर आ रही है तथा नफरत की दिवार खड़ी दिखाई पड़ती है. ग़ज़ल में भी यथार्थवादी अंकन का वह आग्रही है, आकांक्षी है, अभिलाषी है. उसका सद्सुझाव नए रचनाकारों के लिए है कि,
कह रहे ग़ज़ल सच बयानी लिखो
खून को खून पानी को, पानी लिखो
हो कहानी उपन्यास, कविता, ग़ज़ल
पीढिय़ों के लिए इक निशानी लिखो. (पृष्ठ 69)
नए सपने, नए मौसम,नई आंधी, नई पीढ़ी,नई रंगत, नए करतब आदि की चकाचैंध में ग़ज़लकार को कोई अपना नहीं लगता है. उसका कोई न दुश्मन है और न कोई लानत. वह परब्रह्म परमेश्वर अल्ला नूर की झलक हर इंसान में रखता है क्योंकि वह शायर है. भावाभिव्यक्ति की अभिव्यंजना उसकी जुबां पर ग़ज़ल में मुखरित हो उठी है जिसकी साक्ष्य हंै ये पंक्तियां-
कहता हूं ग़ज़ल अपने तलफ़्फ़ुज के मुताबिक
शेरों में हक़ीक़त है नज़ाकत भी नहीं है (पृष्ठ 76)
समग्रत कहा जा सकता है कि डॉ. महेन्द्र अग्रवाल की नई ग़ज़ल विवेक और नीति की पीठिका पर अधिष्ठित है जिसके मूल में आत्मानुशासन की भावसंपदा एवं अनुशासित जीवन मूल्यों की काव्यसंवेदना है. सत्य को ग्रहण तथा मिथ्या को त्याज्य की भावना से व्यंजित किया गया है. चाहते हुए भी ग़ज़लकार  उर्दू-अरबी-फारसी की शब्दावली से अपने को सर्वथा मुक्त नहीं रख सका है. हिन्दी के प्रति रूचि व रूझान होते हुए भी उर्दू तेवर में ग़ज़ल रचने की क्षमता-दक्षता रखने वाले ग़ज़लकार डॉ. महेन्द्र अग्रवाल हैं. रचनाधर्मिता का सफल निर्वहन करते हुए उन्होंने चिंतन-मननोपरांत ग़ज़लें लिखी हैं तथा उनमें नव्य ऊर्जा की धारा श्रमपूर्वक प्रवाहित की है. सर्जनात्मक मानवतावादी दृष्टि से रूपायित, आशावादी जीवन दर्शन से सिक्त उनकी ग़ज़लों का संग्रह ग़ज़ल कहना मुनासिब है यहीं तक वास्तव में स्वागत योग्य कृति है जिसके लिए डॉ. महेन्द्र कुमार को अनेकानेक धन्यवाद. ग़ज़ल काव्यरूप की श्रृंखला में यह ग़ज़ल संग्रह  एक नव्य क्षितिज का विस्तार करेगा ऐसा मेरा विश्वास है.
8-29 ए शिवपुरी म.प्र.
ग़ज़ल कहना मुनासिब है यहीं तक डॉ. महेन्द्र अग्रवाल प्र.सं. 2011/मू. 120/नइ्र्र प्रकाशन शिवपुरी म.प्र.