Thursday 11 October 2012


                      महेन्द्र अग्रवाल की मुनासिब ग़ज़लें

                                                                                                                            किशन तिवारी
हिन्दी ग़ज़ल आज जिन ऊंचाईयों को छू रही है उसे आज के सरोकारों से जुड़ने और नई भाषा शैली गढ़ने का गौरव प्राप्त हुआ है. आज ग़ज़ल की भाषा में जो बदलाव महसूस किया जा रहा है उसमें कथ्य की       विविधता, एहसास की शिद्दत और कहन की नई चमक दृष्टिगोचर होती है. आज हिन्दी और उर्दू में कही जा रही ग़ज़लों में काफी निकटता आती जा रही है जो कि एक भाषाई पुल का काम कर रही है.
ग़ज़ल की दुनिया में महेन्द्र अग्रवाल एक सुपरिचित हस्ताक्षर हैं जो ग़ज़ल के लिए पूर्णतः समर्पित हैं. ग़ज़ल की पत्रिका नई ग़ज़ल प्रकाशित कर उन्होंने समग्र भारत वर्ष के ग़ज़लकारों को एक बहुत अच्छा मंच प्रदान किया है एक समृद्ध परिवार में जन्म लेने के साथ महेन्द्र अग्रवाल एक संवदेनशील व्यक्ति हैं, और संवेदना ही आदमी को इन्सान और अच्छे इन्सान को कवि बनाती है, जो लोग अच्छे व्यक्ति नहीं होते वे कभी अच्छे कवि नहीं बन सकते यह मेरी मान्यता है.
‘‘ग़ज़ल कहना मुनासिब है यहीं तक’’ महेन्द्र अग्रवाल का छठा ग़ज़ल संग्रह है जिसमें 58 ग़ज़लें प्रकाशित हंै यह कवि की जीवन में अनभूत अनुभवों से संजोई हुई ग़ज़लें हैं जो कि आम आदमी के सामाजिक सरोकारों से जुड़ी हुई है. आज के दौर में हर तरफ जनवादी चेतना की भावनाएं ग़ज़लों में अभिव्यक्त हो रही है. ग़ज़लों में व्यवस्था विरोध एवं सामाजिक सरोकारों को स्थान दिया जा रहा है. 
ग़ज़ल चाहे छोटी बहर की हो अथवा लम्बी बहरों की, महेन्द्र अग्रवाल के कथ्य एवं उनकी कहन के कारण ही प्रभावोत्पादक बन सकी हंै. महेन्द्र अग्रवाल ने अपनी ग़ज़लों में जो भी विषय उठाया है उसे वे पूर्ण तार्किकता के साथ और ग़ज़ल के कसे हुए फार्मेट में बड़ी सादगी से अभिव्यक्ति करते है. यही उनकी विशेषता है.
उनके कुछ शेर दृष्टव्य हैं
कह रहे हो ग़़ज़ल सचबयानी लिखो
ख़ून को ख़ून पानी को, पानी लिखो.
बुरा है या कि अच्छा कौन सोचे
सभी पैसा कमाना चाहते हैं
मुलाजिम’ हैं ये ‘सर सर’ बोलते हैं
पुराने पाप, अक्सर बोलते हैं.
मंजिलों को हर क़दम छोड़ा, सफ़र करते रहे
शायरी में जि़न्दगी को दर बदर करते रहे
नई रंगत नई चाहत नई खुशबू नये सपने
नई पीढ़ी से जुड़ते हैं पुरानों में नहीं रहते
पुराना सोच, पुराना रुझान पत्थर पर
पुरानी पीढ़ी के पढि़ये बयान पत्थर पर
रौनकें, ऊंचाईयां, सुंदर लगीं हर शख्स को 
एक दिन मीनार सा सब कुछ यहां ढ़हना भी है.ै
अच्छी ग़ज़ल सिर्फ आम लोगों की भाषा में लिखी जा सकती है. हिन्दी में लिखी जा रही ग़ज़लों में उर्दू के शब्दों का प्रयोग होने से भाषा का विस्तार होता है, परन्तु व्याकरण के प्रयोग में प्रत्येक भाषा को अपने मानक नियमों के अनुसार ही शब्द गढ़ना चाहिए. अगर विषय और भाषा को घर बनाकर खिड़कियों को बाहरी हवाओं से बचने के लिए बंद कर दिया तो यह ग़ज़ल के लिए हानिकारक होगा.
महेन्द्र अग्रवाल इन सारी बारीकियों से बखूबी परिचित हैं और उन्होंने अपने ग़ज़ल संग्रह ‘‘ग़ज़ल कहना मुनासिब है यहीं तक’’ में काफी सावधानियां बरती हैं इस ग़ज़ल संग्रह की ग़ज़ल आज के दौर के सच को बयान करती ग़ज़लें है जिनका ग़ज़ल की दुनिया में स्वागत किया जाना चाहिए, पुस्तक पठनीय एवं संग्रहणीय है.

पुस्तक- ग़ज़ल कहना मुनासिब है यहीं तक (ग़ज़ल संग्रह)
कवि- महेन्द्र अग्रवाल 
प्रकाशक- नई ग़ज़ल प्रकाशन शिवपुरी म.प्र.
पृष्ठ - 80
आवरण- आशय
प्रथम संस्करण- 2011
मूल्य - 120 रूपये



क़बीले की नई आवाज़         

अब यह तथ्य निर्विवाद है कि नई ग़ज़ल के रूप में ग़ज़ल हिन्दी की एक महत्वपूर्ण काव्यविधा  का रूप ग्रहण कर चुकी है यद्यपि इस के सैद्धांतिक प्रतिमानों का यथावत अनुपालन करने का प्रयास रहा है. भाषा और अन्तर वस्तु के स्तर पर निश्चय ही परिवर्तन लक्षित हुए है. नई ग़ज़ल में प्रयुक्त भाषा को संकर-भाषा के रूप में देखा जा सकता है, जो कि न तो खालिस उर्दू है, और न हीं खालिस हिन्दी ही. सामान्यतया उसे गंगा-जमुनी संस्कृति की, आम बोल-चाल की भाषा के नजदीक देखा जाता रहा है. इस भाषा के नूतन प्रयोग के बल पर नई ग़ज़ल की संप्रेषण क्षमता में आशातीत वृद्धि हुई है. वस्तुतः संप्रेषण का गुण किसी रचना को सफलता प्रदान करने में सर्वाधिक महत्वपूर्ण रहा है. जहां तक अन्तर्वस्तु में आये परिवर्तन का प्रश्न है, यही वह बिन्दु है जिसने नई ग़ज़ल के अस्तित्व को हिन्दी में स्थापित करने में अदभुत योग प्रदान किया है. 
विगत वर्षों में नई ग़ज़ल के अनेक संकलन प्रकाश में आये हैं, जिन्हें देख कर इस धारणा को बल मिला है, कि अभिव्यक्ति के लिये काव्य का कोई भी रूप हो, जब तक उसके शिल्प में ताज़गी और अन्तर वस्तु में अपने समय के प्रति ईमानदारी नहीं होगी तब तक उसे साहित्यिक और सामाजिक परिवेश में स्वीकृति नहीं मिलेगी. नई ग़ज़ल का अभियान कतिपय ऐसे ही बदलते प्रतिमानों का अनुसरण करता हुआ, अपनी सृजन यात्रा को निरन्तरता प्रदान कर रहा है.
इस अभियान में डाॅ.महेन्द्र अग्रवाल का बहुमुखी योगदान उल्लेखनीय है. नई ग़ज़ल पर केन्द्रित  उनका शोध कार्य इस काव्य रूप को सुव्यवस्थित स्थिति तक पहुंचाने की दिशा में मील का पत्थर साबित हुआ है, जिसका क्रमशः प्रकाशन हो रहा है. इसके साथ ही डाॅ.अग्रवाल के सम्पादन में नई ग़ज़ल त्रैमासिकी अपने अविरत प्रकाशन के माध्यम से इसे अप्रतिम और समीचीन योग प्रदान कर रही है. कवि स्वयं भी नई ग़ज़ल का एक प्रतिभावान रचनाकार है जिसकी ग़ज़लें न केवल सैद्धांतिक रूप में, वरन युगीन यथार्थ को अभिव्यक्तित्व देने तथा आज के बदलते मानव व्यवहार की विसंगतियों को उजागर करने के कारण अपनी अलग छवि निर्मित करने में सफल रहीं हैं. हाल ही में उनकी ग़ज़लों का नया संकलन ग़ज़ल कहना मुनासिब है यहीं तक प्रकाशित हुआ है, जिसमें उनके द्वारा रचित विगत दो-तीन वर्षों के काल खंड की रचनायें संकलित हैं.
वर्तमान समय में राजनीति के क्षेत्र में जो अवमूल्यन हुआ है तथा कदाचरण की पराकाष्टा हुई है उसके प्रति कवि का आक्रोश कतिपय शेरों में बड़ी तल्खी के साथ प्रकट हुआ है, इस प्रसंग में उनके            कुछ शेर- आज  मुज़रिम भी सियासत में सितारों जैसे
यार लगता है मेरे मुल्क में क़ानून नहीं
निज़ामत बेअसर है या हंै कारिन्दे करिश्माई 
उन्होंने रोटियां भेजीं निवाले ही नहीं आये
है तो नामुमकिन सा पर मुमकिन हुआ इस मुल्क में
आदमी हो और नेता और दंगाई भी हो
सोचता है आजकल क़ानून, चैखट पर खड़ा
जो सलाखों में रहा, राजा वही दरबार में
इधर के समय में अतिशय भौतिकता का दौर अपनी चरम सीमा को भी लांघ चुका है जिसके चलते व्यक्ति आत्मकेन्द्रित हो चला है. परिवार टूट रहे हैं, प्रेम सम्बन्धों में दरार पड़ गई है. लोक-व्यवहार की यह पराभव ग्रस्त दशा इन शेरों में देखें- बेजु़बां रह गया यकलख़्त जो भाई बोला
तेरा कमरा है उधर, और इधर मेरा है
मुसीबत में अकेले अब, कोई अपना नहीं लगता
तमाशा देखतें हैं सब, कोई अपना नहीं लगता 
हर जगह आदर्श, नैतिकता, नज़ीरें
यार सांचे में ढला कोई नहीं है
नई ग़ज़ल एक प्रयोग धर्मी काव्य रूप है इसके रचनाकार को निरंतर, अभिव्यक्ति के नये कोण तलाशने होते हैं. यथार्थ परक अन्तर वस्तु इसकी पहचान है. कथ्य का यह नयापन नई ग़ज़ल की छवि को चमत्कारी सौन्दर्य प्रदान करता है. डाॅ.महेन्द्र अग्रवाल की ग़ज़लों में  ऐसे शेर बहुलता से देखे जा सकते हैं जिनकी वंकिम उक्तिगत कमनीयता और सुगंध मानस को आनन्द विभोरकर कर देती है इस प्रसंग में कतिपय शेर-
करेंगे एक दिन इस बात पर सब नाज़ मानो भी 
मैं हूं अपने क़बीले की, नई आवाज़, मानो भी
ग़ज़ल में कुछ नया कहना, ग़ज़ल को कुछ नया देना
बस इतना सोच के रखा, अलग अंदाज़, मानो भी
मेरी उर्दू में शायद कुछ मेरी हिन्दी झलकती है
इसी तहज़ीब पर अब भी है मुझको नाज़ मानो भी
यहां पर तीसरे शेर में अभिव्यक्ति विचार से मेरे द्वारा नई ग़ज़ल की भाषा विषयक धारणा की पुष्ठि होती जो इस आलेख के आरंभ में व्यक्त की गई है.
प्रस्तुत ग़ज़ल संग्रह पर विहंगम दृष्टि डालने के उपरान्त इस विचार को बल मिलता है कि डाॅ.महेन्द्र अग्रवाल ने नई ग़ज़ल को एक हिन्दी काव्यरुप में स्थापित करने के लिये जो अदभुत रचनाकर्म प्रस्तुत किया है. वह ऐतिहासिक महत्व का प्रदेय है. नई ग़ज़ल के प्रसंग में प्रत्येक विमर्श में इसके महत्व को सदैव रेखांकित किया जाता रहेगा. साथ ही ‘‘ग़ज़ल कहना मुनासिब है यहीं तक’’ संकलन की ग़ज़लों को क़बीले की नई आवाज़         
के रुप में रचनाकारों और सुहृद पाठकों के बीच सम्मान प्राप्त होगा.
-प्रो.विद्यानन्दन राजीव 
4-इन्द्रप्रस्थ नगर , शिवपुरी म.प्र.-473551 

नई ग़ज़ल यात्रा और पड़ाव



नई ग़ज़ल यात्रा और पड़ाव

  डाॅ. मोईनुद्दीन शाहीन
नई ग़ज़ल को आबो ताब बख़्शने वाले अहले कलम हज़रात की फ़हरिस्त में डाॅ. महेन्द्र अग्रवाल का नाम इज़्ज़तो-एहतिराम से लिया जाता है. डाॅ. अग्रवाल ने न सिर्फ नई ग़ज़लें कहने में कामयाबी हासिल की, बल्कि नई ग़ज़ल (या यों कहिये कि सिन्फे़ ग़ज़ल) पर तनकीदी और तहक़ीकी किताबें लिखकर ग़ज़ल के लिए अपने सरगर्म और मुताहर्रिक क़लमकार होने का सुबूत भी फ़राहम किया है. इस वक़्त उनकी किताब बा उन्वान नई ग़ज़ल यात्रा और पड़ाव पेशे नजर है. डाॅ. अग्रवाल ने इसमें उर्दू और हिन्दी ग़ज़ल के आग़ाज़ों-इर्तिका पर यकसां तौर पर आलिमाना नज़र डाली है.हालांकि उनसे पहले भी कई हज़रात ने नई ग़ज़ल पर वक़्तन-फ़वक़्तन अपने-अपने ख़्यालात का इज़हार फरमाया है लेकिन डाॅ. अग्रवाल ने नए और मुनफ़रिद ज़ावियों के हवाले से अपने अफ़कारों-ख़्यालात का इज़हार किया है. उनकी यह कोशिश बड़ी हद तक कामयाब भी रही है कि ग़ज़ल को नए रंगों-आहंग से किस तरह वावस्ता किया जा सकता है. इस सिलसिले में उनकी पेशे नज़र किताब दावते-फिक्रो-अमल देती है. उन्होंने ग़ज़ल की परंपरा और ग़ज़ल का समारांश जैसे मौज़ूआत पर हकीमाना तरीके से क़लम उठाया है. ग़ज़ल की इब्तिदार्, इिर्तका और फ़न्नी लवाजि़म पर उनके अमीक़ मुताले की छाप वाजे़ह तौर पर दिखाई देती है. इसके अलावा ग़ज़ल क्या है? जैसे तमहीदी उन्वान की विसातत से उन्होंने ग़ज़ल की रूह तक उतरने की कोशिश की है. ग़ज़ल की पैदाइश का सही तरीके से वाजे़ह करना उनका अहम क़दम है. उन्होंने यहां उस कलीदी हैसियत को भी बेनक़ाब किया है जो ग़ज़ल की रमाजि़यतो-ईमाईयत में मुजमिर है.
हर बाशऊर शख्स को यह इल्म है कि ग़ज़ल अरबी कसीदे के पेट से पैदा हुई, लेकिन फारसी के जरिए परवान चढ़ी हैं. बाद अजां ग़ज़ल ने दुनिया की हर छोटी-बड़ी ज़बानों में अपना मक़ाम पैदा किया है. डाॅ. अग्रवाल ने इस जै़ल में अमीर खुसरो, हुमाम तबरेजी योहुदंी, ख़्वाजा किरमानी, अम्माद फ़कीह, नासिर खुसरो, हाफि़ज शीराज़ी, साईब, नजीरी, मोहतशिम काशानी, ज़मीरी, कलीम शिफाई, रौदकी, दकीकी, वाहिदी, निज़ामी ओर शेखसादी शीराज़ी वगैरह के हवाले से फ़ारसी ग़ज़लगोई की रिवायत का भरपूर जायजा लिया है और बाज ऐसे हवाले पेश किये हंै जिनकी विसातत से फारसी ग़ज़ल गोई का वाजेह मंज़रनामा हमारे पेशे नज़र होता है. उर्दू साहित्य में ग़ज़ल के जे़रे उन्वान डाॅ. अग्रवाल ने यह वज़ाहत फ़रमाई है कि उर्दू में ग़ज़लगोई की बिस्मिल्लाह फ़ारसी ग़ज़ल के असर से हुई. यही सबब है कि उर्दू की इब्तिदाई ग़ज़लें फ़ारसी की तमामतर फ़न्नी, सक़ाफ़ती और अलामती खुसूसियात से ममलू है. बाज़ नाकि़दों ने इसे कोराना तक़लीद भी करार दिया है. उर्दू अदब की बाज़ तारीख़ों (अदबी तारीख़ों) की तरह ही डाॅ. अग्रवाल ने भी सिन्फे़-ग़ज़ल के तनाजु़र में अदवार की तक़सीम की है. मसलन-
1 दक्खिनी उर्दू ग़ज़ल, 2 उर्दू ग़ज़ल का नया केन्द्र-देहली, 3 उर्दू ग़ज़ल का विकास, 4 उर्दू ग़ज़ल-लखनऊ केन्द्र का प्रादुर्भाव, 5 उन्नीसवीं सदी की लखनवी उर्दू ग़ज़ल, 6 उन्नीसवीं सदी की देहलवी उर्दू ग़ज़ल, 7 बीसवीं सदी को उर्दू ग़ज़ल
इन जै़ली अबवाब के हवालों से डाॅ. अग्रवाल ने भी वज़ाहत की है कि इन अदवार में ग़ज़ल के मिज़ाज में किस तरह की तबदीलियां रूनुमा हुईं और इन तबदीलियांे ने किस तरह ग़ज़ल के ऐवान को मजबूती और इस्तहकामत से मालामाल किया.
हिन्दी साहित्य में ग़ज़ल के उन्वान के तहत डाॅ. अग्रवाल मौसूफ़ ने हज़रत अमीर खुसरो से लेकर अहदे हाजि़र तक के नमाइन्दा ग़ज़लगो शोअरा की ग़ज़ल गोई पर ताइराना नज़र डाली है.  ऐसा मालूम होता है कि डाॅ. अग्रवाल ने जो नताइज अख्ज़ किए हैं उन तक रसाई हासिल करने के लिए आपको उर्दू हिन्दी और फारसी की मुस्तनद किताबों का मुताला करना पड़ा है. प्राचीनकाल, रीतिकाल, छायावाद और आधुनिककाल के ग़ज़लकारों की  तख़लीक़ात के हवाले से आपने जो वज़ाहत फरमाई है उस से हिन्दी ग़ज़ल पर तहकीकी व तनकीदी काम करने वाले अब तक शायद नावाकि़फ़ रहे हैं. डाॅ. अग्रवाल का फारसी और उर्दू साहित्य का इल्म इस बाबत कारगर साबित हुआ है.
नई ग़ज़ल के जेरे उन्वान डाॅ. अग्रवाल ने इखि़्तसार से नई ग़ज़ल जिसे हम जदीद ग़ज़ल भी कहते हैं की आबयारी करने वाले अनासिर पर भरपूर रोशनी डाली है. उर्दू और हिन्दी के चंद शाइरों  और कवियों का हवाला पेश करते हुए यह वाज़ेह करने की कोशिश की है कि जदीद ग़ज़ल या नई ग़ज़ल एक तहरीक (आंदोलन) की सूरत में आगे बढ़ी है. हिन्दुस्तानी समाज में पैदा होने वाली तब्दीलियों ने ग़ज़ल को बेहद मुतास्सिर करके नया रंगों आहंग बख़्शा है. आगे चलकर डाॅ. अग्रवाल मौसूफ ने नई ग़ज़ल पर समकालीन विधाओं एवं साहित्यिक आंदोलनों का प्रभाव में भी यही वज़ाहत फरमाई है कि ग़ज़ल एक ऐसी जि़न्द़ा और जुहिन्दा सिन्फ़ (विधा) है जिसने हर जगह से अच्छे असरात कुबूल करके अपने दामन को मालामाल किया है. इसी सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए आपने नई ग़ज़ल पर नई कविता, गीत, नवगीत और अन्य विधाओं यानी दोहा, हाइकु जैसी साहित्यिक विधाओं के असरात की बाखूबी निशानदेही फ़रमाई है. उक्त विधाओं में जो आलातरीन शैरी महासिन और लवाजि़म मौजूद हैं. उन्होंने ग़ज़ल में भी वुसअत पैदा करने में मुआविनत की है. नई शैरी रिवायत ने ग़ज़ल को नया मोड़ देने की जो कोशिशें की हैं उन सभी का इजमाली जायजा पेश करके डाॅ. अग्रवाल ने अहले हुनर और ज़ोक़े नज़र होने का सुबूत फ़राहम कराया है. ग़ज़ल का इस बारीक बीनी से मुहाला उन्हें उर्दू और हिन्दी ग़ज़ल के साहिबे तजऱ् नक़्क़ादों की फे़हस्ति मंें खड़ा कर देता है. चूंकि डाॅ. अग्रवाल खुद भी एक ग़ज़लगो हैं इसलिए आप ग़ज़ल की रूहानी तहों तक उतरने में सफल हुए है. कव़ी उम्मीद है कि नई ग़ज़ल का मुताला करने वालों के लिए मौसूफ की मज़कूरा किताब संगेमील साबित होगी.
-सुलेमानी मदरसा के पास,
 मोहल्ला व्यापारियान बीकानेर राज.
नई ग़ज़ल यात्रा और पड़ाव/लेखक डॉ. महेन्द्र अग्रवाल/प्र.स.2011 /मूल्य-180 रूपये/प्रकाशक-नई ग़ज़ल प्रकाशन सदर बाजार शिवपुरी (म.प्र.)/


ग़ज़ल को समझने के लिए एक ज़रूरी किताब



ग़ज़ल को समझने के लिए एक ज़रूरी किताब                
डा.प्रेमकुमारी कटियार
बरसों हो गये ग़ज़ल के मूल आशय या कथ्य से शराब, शबाब और मुहब्बत की विदाई हो चुकी है और अब वह आम आदमी के दर्द को बयान करती हुई गहराई से सामाजिक सरोकारों से जुड़ गई है. आज भी मैं इस सचाई पर विश्वास करती हूं कि गीत की तरह ग़ज़ल को उसके मौलिक अंदाज़ में ही सुना और रचा जा रहा है-जबकि उसका अरूज (छंद) गीत की तुलना में ज्यादा कठिन है. ग़ज़ल का इतिहास सदियों पुराना है और  उस पर काफी शोध हुए हैं. हिन्दी गीत की ही तरह शायरी के भी नये दौर चल रहे हैं और इनमें से वही सच बयान हो रहे हैं जिसे आदमी चाहता है. मतलब यह कि जिस तरह गीत को नवगीत का रूप दिया गया है, ऐसा कुछ ग़ज़ल के मामले में नहीं हुआ. किंतु नई ग़ज़ल नाम देकर डॉ. महेन्द्र कुमार अग्रवाल ने एक क्रांति का शंखनाद किया. वह प्रामाणिक और उनकी अध्येतादृष्टि संपन्नता का परिचायक है. हाल ही उनकी एक नवीन कृति आई है.नई ग़ज़ल -यात्रा और पड़ाव.
यह कृति ग़ज़ल की खुली चर्चा के लिए लिखी गई है. इस पर बहस से काफी कुछ सामने आ सकता है. यह खासतौर पर किसी अहम को भी चुनौतियां देती है जिनको अपने ग़ज़ल लेखन पर अहम है. यह कृति यह भी इशारा करती है कि उर्दू और हिन्दी की समीक्षा दृष्टि में कितना अंतर है. वैसे डॉ. महेन्द्र अग्रवाल न केवल एक श्रेष्ठ ग़ज़लकार हैं अपितु, इस विधा पर भी उनकी समीक्षा दृष्टि को कोई चुनौती नहीं दी जा सकती. आज भी यह सवाल बार-बार उठता है कि ग़ज़ल का उद्गम अंतत कहां से हुआ है और इसे सबसे पहले किसने कहा. डॉ. अग्रवाल ने यह स्वीकारा है कि इसका मूल अरबी साहित्य रहा है और इसका जन्म कोई अरबी कसीेद के बाद तश्बीब से हुआ है. तश्बीब का मतलब है- कसीेदे में शुरू के शेर जिनमें कोई दृश्य या किसी घटना का वर्णन होता है और उसके बाद ही गुरेज होता है. कसीदे का मतलब है काव्यात्मक प्रशंसा और गुरेज का गुणगाथा की ओर मोड़ देने वाला अलंकार. वैसे डॉ. अग्रवाल मानते हैं कि ग़ज़ल का पूण विकास ईरान में अरबों के आगमन के पश्चात नवी शताब्दी या उसके बाद हुआ है, उससे पहले नहीं. डॉ. महेन्द्र अग्रवाल यह स्वीकार करते हैं कि रेख्ता के घोड़े पर सवार होकर उर्दू भाषा में धूम मचाती हुई हिन्दी साहित्य में आ पहुंची और वर्तमान में नई ग़ज़ल के रूप में दृष्टव्य है.
वास्तव में यह कृति उन लोगों के लए भी जरूरी है जो ग़ज़ल के क्षेत्र में हिन्दी ग़ज़ल कहने के लिए उतरे. डॉ. अग्रवाल का यह कथन भी उल्लेखनीय है कि नई ग़ज़ल के रूप में ग़ज़ल को मान्यता मिल सकती है. नई ग़ज़ल यात्रा और पड़ाव इस कृति में उन्होंने फारसी साहित्य में ग़ज़ल, उर्दू साहित्य में ग़ज़ल, हिन्दी साहित्य में ग़ज़ल और नई ग़ज़ल के साथ ग़ज़ल पर नई कविता, गीत नवगीत और अन्य विधाओं का क्या प्रभाव पड़ा इसे बड़ी ही गंभीरता से समझाया है. ग़ज़ल का समारंभ इस अध्याय में उन्होंने यह स्वीकार किया है कि प्रथम ग़ज़लकार कौन था- इसकी खोज अभी शेष है. साथ ही उन्होंने ग़ज़ल के इतिहास को समझने वाले अनेक उर्दू, फारसी के विद्वानों के विचार भी ग़ज़ल का समारंभ अध्याय में दिए हैं. इनमें डॉ. इबादत बरेलवी, रौदकी को ग़ज़ल का पहला रचनाकार मानते हैं. जिन्होंने फारसी में सबसे पहले ग़ज़ल कही.
बीसवी सदी की उर्दू ग़ज़ल इसका एक महत्वपूर्ण अध्याय है और किस शायर या ग़ज़लकार का क्या रंग है, इसका भी खुलासा हुआ. वैसे अनेक नामवर ग़ज़लकारों के नाम प्राय बहुसंख्य लोग जानते हैं. इनमें साकिब लखनवी, आरजू लखनवी, डॉ. इकबाल फैज़ अहमद फैज़, फि़राक़ गोरखपुरी, साहिर लुधियानवी, मज़ाज लखनवी और गुलाम रब्बानी ताबां. ग़ज़ल पर समकालीन विधाओं के प्रभाव शीर्षक अध्यायों में वह कहते हैं कि- प्रयोगवाद नई कविता का प्रथम सोपान था. प्रथम तार सप्तक का प्रकाशन हिन्दी साहित्य के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण घटना थी. जिससे एक नये या साहित्यिक आंदोलन का सूत्रपात हुआ. डॉ. महेन्द्र अग्रवाल के अनुसार हिन्दी साहित्य में ग़ज़ल के प्रादुर्भाव विषयक विद्वानों की यह धारणा सही नहीं है कि उर्दू साहित्य की ग़ज़ल की लोकप्रियता से आकर्षित होकर आधुनिक युग में हिन्दी ग़ज़ल का लेखन प्रारंभ हुआ. क्योंकि हिन्दी साहित्य में ग़ज़ल हिन्दी खड़ी बोली के जनक अमीर खुसरो (1253-1325) के समय ही  दृष्टिगोचर होने लगती है. खुसरो के बाद कबीर और उनके परवर्ती ग़ज़लकार प्यारेलाल शौकी व चन्द्रभान बहरमन, बलीराम बली के साहित्य में ग़ज़ल रचनाएं मिलती हैं.
यह कृति डॉ. महेन्द्र अग्रवाल ने बड़ी ही खोज के साथ लिखी है इसलिए इसे प्रामाणिक मानने से किसी को भी आपत्ति नहीं हो सकेगी. वैसे ग़ज़ल का इतिहास लिखना बड़ा जोखिम उठाने से कम नहीं है. इस कृति के पढऩे से ग़ज़ल संबंधी अनेक भ्रमों का निराकरण होता है. वैसे साहित्य की प्रत्येक विधा को ऐसे युग देखना पड़ता है जब उसे लेकर कोई न कोई विवाद खड़ा होता है. गीत हो या ग़ज़ल  कहीं न कहीं ये हालात आज भी मौजूद हैं, परंतु यह कृति सही दिशा में रची गई है. मुझे विश्वास है ग़ज़ल के इतिहास पर नई दृष्टि से लेकर इसके उद्गम और विकास का सम्यक विवेचन इसमें गहन अध्ययन के बाद किया गया है.
108 ए प्रगति नगर ऋषिपुरम फेज बरखेड़ा भोपाल म.प्र.
कृति नई ग़ज़ल यात्रा और पड़ाव/लेखक डॉ. महेन्द्र अग्रवाल/प्रकाशक-नई ग़ज़ल प्रकाशन सदर बाजार शिवपुरी (मप्र)/मूल्य-180 रूपये/प्रस्तुति आकर्षक


डा.प्रेमकुमारी कटियार
108 ए प्रगति नगर ऋषिपुरम फेज
बरखेड़ा भोपाल म.प्र.















ग़ज़ल और नई ग़ज़ल


ग़ज़ल और नई ग़ज़ल
समीक्षक- डाॅ. पशुपतिनाथ उपाध्याय डी.लिट्.
आज के परिवेश में आधुनिक राष्ट्रीय जीवन को केन्द्र में रखकर उदात्त कोमल भावनाओं के साथ ग़ज़लें लिखी जा रही हैं. क़ाफि़या और रदीफ़ में भी सरलता, कोमलता एवं लचीलापन आ गया है. इस प्रकार उर्दू ग़ज़ल का भी एक परिप्रेक्ष्य में नवीन संस्कार हुआ है. परंपरागत स्ट्रक्चर एवं टेक्चर दोनों में परिमार्जन हुआ है. जीवनानुभूति को साक्ष्य मानकर ग़ज़लकार राग की परिधि के भीतर वैचित्र उत्पन्न करते हुए ग़ज़ल लिख रहे हैं. जिसमें सम्प्रति डाॅ. महेन्द्र अग्रवाल का विशेष योगदान है. उनकी सैद्धांतिक कृति ग़ज़ल और नई ग़ज़ल , ग़ज़ल काव्यरूप का जीवंत दस्तावेज है. नई ग़ज़ल दिशा और दशा पर भी उनकी कृति प्रकाशित हो चुकी है. नई ग़ज़ल स्वरूप एवं संवेदना नामक शोध-प्रबंध लिखकर डाॅ. अग्रवाल ने ग़ज़ल काव्यरूप पर अपना गंभीर चिंतन मनन करके एक नव्य वैचारिक क्रांति लाने का प्रयास किया है. उनकी अवधारणा है कि परंपरागत ग़ज़ल में प्रमुखतः हुस्न और इश्क की ही चर्चा हुई है किन्तु नई ग़ज़ल का मूल प्रतिपाद्य समकालीन मानव जीवन की समग्र आलोचना है, यह यथार्थवाद के ठोस धरातल पर खड़ी है. ....नई ग़ज़ल ने जीवन के एकांगी रूप को टटोलने की अपेक्षा जीवन की प्रत्येक पर्त को उघाड़कर देखा है.  (पृ.28-29) इस प्रकार नई ग़ज़ल की भावभूमि में नव्यता और भव्यता लाने का प्रयास किया गया है ताकि ग़ज़ल काव्यरूप की दिव्यता प्रमाणित हो सके.
ग़ज़ल और नई ग़ज़ल मात्र कृति ही नहीं अपितु कृति का प्रथम अध्याय एवं प्रस्थान बिंदु है जिसमें ग़ज़ल काव्यरूप का सर्वेक्षण-निरीक्षण ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में इतिवृतात्मकता के धरातल पर किया गया है. रचनाकार की मान्यता है कि नई ग़ज़ल की विशिष्टताओं में रूमानी भावुकता से मुक्ति का प्रयास, वण्र्य-विषय का       वैविध्य, नवीन प्रयोगों की स्पृहा, समसामयिकता, लोकोन्मुखता, व्यंग्यात्मकता, विद्रोहात्मकता, मानवीयता, स्पष्टवादिता, बौद्धिकता, विश्वसनीयता, भाषा की सहजता व शब्दावली की उन्मुक्तता को रेखांकित किया जा सकता है. (पृ. 16) ग़ज़लकारों की अवधारणाओं का उल्लेख करते हुए नई ग़ज़ल का नयापन इंगित किया गया है जिसमें नई ग़ज़ल  के भाव, भाषा एवं शिल्प में नव्यता देखी गई है. चूंकि ग़ज़लें थोक में लिखी जा रही हैं और ग़ज़लकारों ने संवेदना और शिल्प दोनों स्तरों पर स्वच्छंदतावादी रूचि का परिचय दिया है इसलिए शिल्प
विधान में दोष आना स्वाभाविक ही था फिर भी कुछ रचनाकारों ने संयम और धैर्य का परिचय देते हुए ग़ज़लें लिखीं हैं. उन्हीं रचनाकारों में एक नाम डाॅ. महेन्द्र अग्रवाल का भी है जिन्होंने परंपरानुगमन में विश्वास रखते हुए अपनी नई जमीं तलाश की है तथा नए तेवर से ग़ज़लें लिखी हैं.
वस्तुतः ग़ज़ल और नई ग़ज़ल कुछ सीमा तक ग़ज़ल और हिन्दी ग़ज़ल की पर्याय हैं, अपर नाम हैं, समानार्थी और वाच्यार्थी हैं. प्रयोगधर्मी रचनाकार ने ग़ज़ल काव्यरूप का सम्यक विवेचन-विश्लेषण करने के उपरांत अपना स्पष्ट उल्लेख किया है कि प्रतीक तथा बिम्ब विधान के आधार पर भी नई ग़ज़ल को ग़ज़ल परंपरा से पृथक किया जा सकता है. (पृ.76) नई ग़ज़ल काव्ययात्रा में अनेक पड़ाव को रचनाकार ने संदर्भित किया है. भावभूमि और सृजन की मानसिकता का आलोकन विलोकन करते हुए आठवें, नवें एवं दशवें दशक की ग़ज़लों के परिपे्रक्ष्य में अनुसंधानात्मक शैली में भावभिव्यक्ति की गई है. कालक्रम,परिदर्शन, कहन, भाषा, प्रतीक और बिम्ब विधान के आधार पर भी अपना निजीमत बनाकर रचनाकार ने तथ्यानुशीलन को व्यावहारिक धरातल प्रदान किया है. सैद्धांतिक समीक्षा को गतिमान बनाने में ग़ज़ल काव्यरूप पर यह एक अद्भुत कृति है जिसके लिए डाॅ. महेन्द्र अग्रवाल की अनुशंसा करना साहित्यिक धर्म बन जाता है. कृति का प्रणयन श्रमपूर्वक किया गया है. कृति स्वागत योग्य है.
8-29ए शिवपुरी अलीगढ202001

ग़ज़ल और नई ग़ज़ल एक तआर्रूफ़


ग़ज़ल और नई ग़ज़ल एक तआर्रूफ़

                                                                                                                               -डाॅ. मोईनुद्दीन शाहीन

डाॅ. महेन्द्र अग्रवाल की जि़न्दगी ग़ज़ल से इबारत है. वो ग़ज़ल के लिए जीते हैं और ग़ज़ल की रूह में गहराई तक उतर जाना ही मक़्सदे हयात तसव्वुर करते हैं. ग़ज़ल गोई में जिस तरह उन्होंने अपना अलग अंदाज़ ईजाद किया है उसी तरह ग़ज़ल पर तन्कीदी और तहक़ीक़ी किताबें तहरीर करने में भी उनका अपना अलग ही मुक़ाम है. इस वक़्त मौसूफ की ताज़ा तरीन किताब ‘ग़ज़ल और नई ग़ज़ल ’ राकिम के पेशे नज़र है. इसी साल उनकी एक और किताब ‘नई ग़ज़ल-यात्रा और पड़ाव’ भी ज़ेवरेतबा से आरास्ता होकर मंज़र आम पर आ चुकी है जिसे उर्दू और हिन्दी के अदबी हल्कों में पिज़ीराई हासिल हो चुकी है.
ग़ज़ल और नई ग़ज़ल  दरअसल डाॅ. अग्रवाल साहब की फि़क्रेरसा का जि़न्दा-ओ-जावेद नमूना है. उन्होंने इस किताब में ग़ज़ल और नई ग़ज़ल , नई ग़ज़ल-परिभाषा सीमा, स्त्रोत, ग़ज़लकारों समीक्षकों की     अवधारणाएं, परिणति, नई ग़ज़ल का नयापन जैसे मौजूआत पर मुख्तर लेकिन जामे अंदाज में अपना माफि़ज़्जमीर वाजे़ह किया है. हालांकि इसी क़बील की बहस उन्होंने अपनी पिछली किताब में भी उठाई है, लेकिन जे़रेनजर किताब में उनका उसलूब जरा हटकर दिखाई देता है. ग़ज़ल के फ़नी लवाजि़म और अनासिर से क़त्आए-नज़र मौसूफ़ ने बड़ी साफ़गोई से ग़ज़ल के मिज़ाज व मज़ाक़ पर जो रोशनी डाली है वो बाज़ रिवायत परस्तांे के अफ़कार व ख़्यालात की तरदीद करते हुए सहतमंदाना नतीजा अख़्ज करती हुई दिखाई देती है. डाॅ. साहब गालेबन यह कहना चाहते हैं गोया ग़ज़ल कहने से कब्ल, ग़ज़ल के फ़न, तारीख़ और तहज़ीब से ग़ज़लगो की वाक़फियत अज हद ज़रूरी वर्ना ग़ज़ल महज क़ाफि़या पैमाई साबित होगी. बाज बातें डाॅ. साहब ने वही कहीं हैं जो कई सालों पहले हाली ने मुकदमा-ए-शेरो-शाइरी में कही थीं. लेकिन डाॅ. साहब ने नई ग़ज़ल और नए ज़माने के तनाजु़र में उन्हें अपडेटेड करने की अच्छी कोशिश की है. इस किस्म की बातें लिखते वक्त हमारे उर्दू और हिन्दी के बाज नाके़दीन हज़रात लकीर के फ़कीर होने या अपने ज़हनी दिवालिएपन का सुबूत फ़राहम करते नज़र आते है, लेकिन उर्दू-हिन्दी की मुसतनद किताबों के अमीक़ मुताले ने डाॅ. महेन्द्र अग्रवाल को अपनी अलग और पुख़्ता राय कायम करने का शऊर बख्शा है. ग़ज़ल गोई के लिए जिन औसाफ़ और अनासिर की अशद ज़रूरत होती है उनका तज़किरा उन्होंने बड़ी सलीकेमंदी से किया है.
नई ग़ज़ल की काव्य यात्रा या शेरी सफ़र में भावभूमि और सृजन की मानसिकता ने ग़ज़ल के खमीर में बड़ी उथल-पुथल मचाई है. इस उथल-पुथल की निशानदेही करते हुए डाॅ. साहब ने जिन ख़्यालात का इज़्हार फ़र्माया उनसे शायद ही कोई बालिग नज़र और दयानतदार साहिबइल्म इंकार करता हो.
उर्दू और हिन्दी ग़ज़ल गोई में आठवें और नवें दशक में बला का इन्किलाब वर्पा हुआ था. एमरजेंसी  में ग़ज़ल ने शराब छोड़कर नीम का रस पीना शुरू कर दिया था. यही दो दशक ऐसे हैं जिनमें ग़ज़लों ने क्रांतिकारी परिवर्तनों का बा सरोचश्म खै़र मक़दम किया. डाॅ. साहब मौसूफ़ ने इन्हीं पहलुओं पर नाकि़दाना और हकीमाना नज़र डालते हुए अपने मुतावाजिन ख्य़ालात ज़ाहिर किए हैं. साथ ही आठवें दशक से पूर्व की ग़ज़लों की परंपरा यानी रिवायत को भी मौज़ूए-बहस बनाया है ताकि काराईन पर यह अयां हो जाए कि आठवें और नवें दशक में ग़ज़लगोई में किस कि़स्म के रूझानात रूनमा हुए और उन्होंने ग़ज़ल को मुतास्सिर करते हुए उसकी काया पलटने में किस दर्जा मुआविनत की. इन दोनों दशकों में ग़ज़ल महफिलों से निकलकर फुटपाथ पर आती हुई नज़र आती है. उर्दू और हिन्दी के चन्द ग़ज़लगो शुअरा-ए-किराम की ग़ज़लों के तनाजुर में डाॅ. साहब मौसूफ ने यही सबकुछ समझाने की सई फ़रमाई है. यहां आपके अफ़कार में तवाजुन (संतुलन) मिलता है. इन्तेहापंदी का ज़रा भी शायबा नहीं होता है और यह उनके गहरे मुताले का समरा है. नई ग़ज़ल-विधा विभेदन एक मुस्तकि़ल मौजू है और इसके पांच जै़ली उन्वानात इस तरह है-कालक्रम के आधार पर, परिदर्शन के आधार पर, कहन के आधार पर, भाषा के आधार पर, और प्रतीक और बिम्ब के आधार पर. इन मौज़ूआत का मुताला करते वक़्त यह तस्वीर साफ हो जाती है कि डाॅ. साहब ने मशरिक़ी और मग़रिबी तनक़ीद के बाज उसूल-ओ-ज़वाबित की बिना पर नई ग़ज़ल को परखने की चेष्टा की है. शास्त्रीय पद्धति का अध्ययन यहां भी कारआमद साबित होता हुआ दिखाई देता है. संस्कृत और फ़ारसी के आधार ग्रंथों ने जो सीख हमें दी है उसके दर्शन इन मौजूआत का खुलासा पढ़ते हुए हमें होने लगते हैं. आज़ादी से कब्ल आज़ादी के बाद की ग़ज़लगोई का अस्ल चेहरा इन आईनारूपी मौजूआत के हवाले से डाॅ. अग्रवाल साहब किब्ला ने दिखाने की सई फ़रमाकर हमारी आंखों पर दानिस्ता और नादानिस्ता तौर पड़े हुए पर्दों को उठाना अपना अदबी समाजी, सक़ाफ़ती और तहज़ीबी फ़र्ज समझा है. इस कि़स्म की बहस उठाते हुए बाज हज़रात नज़र बचाकर निकल जाना बेहतर समझते हैं. लेकिन डाॅ. अग्रवाल इस कि़स्म के सहलअंगार लोगों में शुमार नहीं होते हैं. वो जब तक कोई नतीजा नहीं निकल जाता तब तक अपनी फि़क्रे रसा का घोड़ा दौड़ाते रहते हैं. डाॅ. मौसूफ़ इस मामले में उस गोताखोर की तरह काविश करते हुए दिखाई देते हैं जो समन्दर की गहराई में जाकर गौहरे आबदार फ़राहम करता है.
आखि़र में नतीजे के तौर पर राकि़मा का यही कहना है कि डाॅ. साहब मौसूफ़ की जे़रे नज़र किताब उर्दू व हिन्दी ग़ज़ल के तनाजुर में मशअले-राह साबित होगी.
डाॅ. मोईनुद्दीन शाहीन, प्राघ्यापक राजकीय डूंगर महाविद्यालय बीकानेर राजस्थान