Thursday 11 October 2012


                      महेन्द्र अग्रवाल की मुनासिब ग़ज़लें

                                                                                                                            किशन तिवारी
हिन्दी ग़ज़ल आज जिन ऊंचाईयों को छू रही है उसे आज के सरोकारों से जुड़ने और नई भाषा शैली गढ़ने का गौरव प्राप्त हुआ है. आज ग़ज़ल की भाषा में जो बदलाव महसूस किया जा रहा है उसमें कथ्य की       विविधता, एहसास की शिद्दत और कहन की नई चमक दृष्टिगोचर होती है. आज हिन्दी और उर्दू में कही जा रही ग़ज़लों में काफी निकटता आती जा रही है जो कि एक भाषाई पुल का काम कर रही है.
ग़ज़ल की दुनिया में महेन्द्र अग्रवाल एक सुपरिचित हस्ताक्षर हैं जो ग़ज़ल के लिए पूर्णतः समर्पित हैं. ग़ज़ल की पत्रिका नई ग़ज़ल प्रकाशित कर उन्होंने समग्र भारत वर्ष के ग़ज़लकारों को एक बहुत अच्छा मंच प्रदान किया है एक समृद्ध परिवार में जन्म लेने के साथ महेन्द्र अग्रवाल एक संवदेनशील व्यक्ति हैं, और संवेदना ही आदमी को इन्सान और अच्छे इन्सान को कवि बनाती है, जो लोग अच्छे व्यक्ति नहीं होते वे कभी अच्छे कवि नहीं बन सकते यह मेरी मान्यता है.
‘‘ग़ज़ल कहना मुनासिब है यहीं तक’’ महेन्द्र अग्रवाल का छठा ग़ज़ल संग्रह है जिसमें 58 ग़ज़लें प्रकाशित हंै यह कवि की जीवन में अनभूत अनुभवों से संजोई हुई ग़ज़लें हैं जो कि आम आदमी के सामाजिक सरोकारों से जुड़ी हुई है. आज के दौर में हर तरफ जनवादी चेतना की भावनाएं ग़ज़लों में अभिव्यक्त हो रही है. ग़ज़लों में व्यवस्था विरोध एवं सामाजिक सरोकारों को स्थान दिया जा रहा है. 
ग़ज़ल चाहे छोटी बहर की हो अथवा लम्बी बहरों की, महेन्द्र अग्रवाल के कथ्य एवं उनकी कहन के कारण ही प्रभावोत्पादक बन सकी हंै. महेन्द्र अग्रवाल ने अपनी ग़ज़लों में जो भी विषय उठाया है उसे वे पूर्ण तार्किकता के साथ और ग़ज़ल के कसे हुए फार्मेट में बड़ी सादगी से अभिव्यक्ति करते है. यही उनकी विशेषता है.
उनके कुछ शेर दृष्टव्य हैं
कह रहे हो ग़़ज़ल सचबयानी लिखो
ख़ून को ख़ून पानी को, पानी लिखो.
बुरा है या कि अच्छा कौन सोचे
सभी पैसा कमाना चाहते हैं
मुलाजिम’ हैं ये ‘सर सर’ बोलते हैं
पुराने पाप, अक्सर बोलते हैं.
मंजिलों को हर क़दम छोड़ा, सफ़र करते रहे
शायरी में जि़न्दगी को दर बदर करते रहे
नई रंगत नई चाहत नई खुशबू नये सपने
नई पीढ़ी से जुड़ते हैं पुरानों में नहीं रहते
पुराना सोच, पुराना रुझान पत्थर पर
पुरानी पीढ़ी के पढि़ये बयान पत्थर पर
रौनकें, ऊंचाईयां, सुंदर लगीं हर शख्स को 
एक दिन मीनार सा सब कुछ यहां ढ़हना भी है.ै
अच्छी ग़ज़ल सिर्फ आम लोगों की भाषा में लिखी जा सकती है. हिन्दी में लिखी जा रही ग़ज़लों में उर्दू के शब्दों का प्रयोग होने से भाषा का विस्तार होता है, परन्तु व्याकरण के प्रयोग में प्रत्येक भाषा को अपने मानक नियमों के अनुसार ही शब्द गढ़ना चाहिए. अगर विषय और भाषा को घर बनाकर खिड़कियों को बाहरी हवाओं से बचने के लिए बंद कर दिया तो यह ग़ज़ल के लिए हानिकारक होगा.
महेन्द्र अग्रवाल इन सारी बारीकियों से बखूबी परिचित हैं और उन्होंने अपने ग़ज़ल संग्रह ‘‘ग़ज़ल कहना मुनासिब है यहीं तक’’ में काफी सावधानियां बरती हैं इस ग़ज़ल संग्रह की ग़ज़ल आज के दौर के सच को बयान करती ग़ज़लें है जिनका ग़ज़ल की दुनिया में स्वागत किया जाना चाहिए, पुस्तक पठनीय एवं संग्रहणीय है.

पुस्तक- ग़ज़ल कहना मुनासिब है यहीं तक (ग़ज़ल संग्रह)
कवि- महेन्द्र अग्रवाल 
प्रकाशक- नई ग़ज़ल प्रकाशन शिवपुरी म.प्र.
पृष्ठ - 80
आवरण- आशय
प्रथम संस्करण- 2011
मूल्य - 120 रूपये

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