Tuesday 1 November 2011

ग़ज़ल कहना मुनासिब है यहीं तक



ग़ज़ल के नये जिस्म को नये जेवर दिये हैं,डॉ.महेन्द्र अग्रवाल ने -आचार्य भगवत दुबे


दुष्यंत के पहले और बाद में ग़ज़ल के दो स्वरूप देखने मिलते हैं एक पूरी तरह से उर्दू से सम्पन्न और दूसरा उर्दू मिश्रित. दुष्यंत के पश्चातवर्ती ग़ज़लकारों में भी दो श्रेणी के ग़ज़लकार हैं एक वे जो शुद्ध हिन्दी की तत्सम शब्दावली के साथ ग़ज़ल लिख रहे हैं और उसे हिन्दी ग़ज़ल कहने के पक्षधर हैं यद्यपि चन्द्रसेन विराट ने ग़ज़ल को मुक्तिका का नाम दिया है नीरज विशुद्धता वादी तो नहीं है किंतु सर्वप्रथम उन्होंने ही ग़ज़ल को गीतिका संबोधन दिया, नीरज के जैसा एक बड़ा वर्ग है जो साधारण बोलचाल की उर्दू के साथ हिन्दी में ग़ज़लें कह रहे हैं. डॉ. महेन्द्र अग्रवाल इसी वर्ग के शायर हैं आपने ग़ज़ल के तथाकथित गीतिका, मुक्तिका तेवरी (प्रवर्तक रमेश राज) एवं हिन्दी ग़ज़ल से आगे बढ़कर इस विधा को, नई ग़ज़ल के रूप मे प्रतिष्ठापना के लिए शोध प्रबंध लिखकर साहित्य जगत में अपनी स्वयं की सारस्वत पीठिका तैयार की है. नई ग़ज़ल की प्रतिष्ठापना में डॉ.अग्रवाल का योगदान साहित्य के इतिहास में सम्मान के साथ रेखांकित तो होगा ही एक अच्छे ग़ज़लकार के रूप में भी आपने अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है. 1- पेरोल पर कभी तो रिहा होगी आग 2- शोख़ मंज़र ले गया  3- ये तय नहीं था,  4- बादलों को छूना ह,ै चांदनी से मिलना है ़ आदि स्तरीय ग़ज़ल संग्रहों के अतिरिक्त महेन्द्र अग्रवाल ने क़बीले की नई आवाज के माध्यम से उर्दू में ग़ज़लें कहकर भाषायी विज्ञता एवं सामंजस्य का परिचय दिया है.

समीक्ष्य ग़ज़ल संग्रह ग़ज़ल कहना मुनासिब है यहीं तक में डॉ.अग्रवाल की 58 ग़ज़लें सम्मिलित है. इन ग़ज़लों को पढ़ने पर लगता है कि आप पूरी तन्मयता, निष्ठा एवं ईमानदारी से ग़ज़ल को सजाने संवारने एवं उसे नई ग़ज़ल के रूप में स्थापित करने के लिए कटिबद्ध है. इसी आस्था अनुराग और प्रतिबद्धता ने उन्हें एक सशक्त ग़ज़लकार की हैसियत प्रदान की है. ग़ज़ल के प्रति आपकी यह कृतज्ञतामूलक स्वीकारोक्ति निम्नलिखित शेर में दृष्टव्य है.
मैं ग़ज़ल का शुक्रिया वर्षों अदा करता रहूं
हां इसी ने हैसियत दी और दमदारी मुझे
ग़ज़ल की खिदमत में डॉ.अग्रवाल को आनन्द की अनुभूति होती है. यह ग़ज़लकारी का ही परिणाम है कि आपके यहां साहित्य जगत की बड़ी बड़ी विभूतियां आती रहती हैं. 
ऐसा लगता है मुझे जैसे पयंबर आये
मेरे घर जब भी इकट्ठे हो सुखनवर आये
जो ग़ज़ल कभी माशूका और महबूब की रूमानी गुफ्तगू का पर्याय मानी जाती थी वही अब वैयक्तिक आत्मीय अभिव्यक्ति का प्रेम भरा इज़हार न होकर सामाजिक विद्रूपता का तीखा एवं पैना विरोध करने वाली व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति बन गई है. नई ग़ज़ल का यह लोकधर्मी संवाद सामाजिक पीड़ा एवं उसकी छटपटाहट का   प्रतिनिधित्व करता है. 
आज देश में भुखमरी, बेकारी, गरीबी, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार चरम सीमा पर है कभी स्व.राजीव   गांधी ने अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए स्वीकार किया था कि सरकार दिल्ली से एक रूपया भेजती है किन्तु आम आदमी तक पन्द्रह पैसे ही पहुंच पाते हैं. कभी इस सेवक ने भी लिखा था-
सौ चले गांव को दिल्ली से
पच्यासी जाते अटक बन्धु
खेतों को बूंद न मिल पायी
खुद बांध गया है गटक बन्धु
इसी सच्चाई को डॉ.अग्रवाल ने यूं कहा है-
निज़ामत बेअसर है या हैं क़ारिन्दे करिश्माई
उन्होंने रोटियां भेजीं, निवाले ही नहीं आये
गरीब और गरीब होता जा रहा है चारों और लूट मची है शोषणकारी अर्थपिशाच हो चुके हैं तभी संवेदनशील शायर कह उठता है-
बची कहां है यहां पत्तियां भी शाखों पर 
उखाड़ लीजिए पेड़ों की छाल बाकी है
और आगे देखिये शायर सत्ता को फटकरते हुए दो टूक सच्ची बात कहता है-
आपकी हम पर हुई अब तक महरबानी कहां 
रोटियां तो छोड़िये पीने को है पानी कहां 
आज जबकि दौलत के नशे में चूर शहरी लोग इन्सानियत का तकाजा भी भूलते जा रहे हैं वहीं हमारे ग्राम्य जीवन  हमारे संस्कार, रिश्तों की मिठास एवं आदर सत्कार की सुगंध से आज भी सराबोर है इसी भाव को डॉ. अग्रवाल ने बड़े सलीके से यूं प्रस्तुत किया है-
शहर में डाक्टर पढ़ते हैं केवल अर्थ की भाषा 
हमारे गांव में रिश्ते का मतलब दाई होता है
गांव की बदहाली पर आपने और भी अनेक अच्छे शेर कहें हैं, ये शेर भी देखिये-
नहीं आयी कहीं से रोशनी इनके कबीले तक
ये बच्चे गांव के हैं बेर को चमचम समझते हैं
गांवों की अपेक्षा आज शहरों में जीवन की जटिलतायें और उलझनें अधिक पेंचीदी और पीड़ादायक हैं इसीलिए घृणा, नफरत, मजहबी उन्माद एवं राजनैतिक दुरभिसंधियों की चिन्गारियां यहां अक्सर भड़क उठती है और अमन चैन खतरे में पड़ जाता है. हर संवेदनशील रचनाकार इन्सानियत भाईचारे प्रेम एवं आपसी सद्भाव की कामना करता है. डॉ.महेन्द्र अग्रवाल की यही कामना अघोलिखित शेर में देखी जा सकती है
कभी नफरत से न झुलसे मुहब्बत
मेरे मौला शहर आबाद रखना 
डॉ.अग्रवाल के इस समीक्ष्य ग़ज़ल संग्रह में कुछ प्रेम मुहब्बत की रागात्मकता भी दिखाई देती है इसी भावभूमि के ये शेर देखिये-
समय के साथ बहते हुए और यथार्थ का सामना करते हुए भी शायर ने अपना हाल ए दिल बयां किया है शेरों की मर्यादित भंगिमा दृष्टव्य है-
शम्मा तब ही शरमाती है
उस पर जब जब परवाने हों
यूं समय के साथ मुझको आजकल बहना भी है
बात दिल की ही सही पर आपसे कहना भी है
बला का हुस्न कि हरकत में हो अभी जैसे
किसी की चाह ने फूंकी है जान पत्थर पर
अंततः यही कहूंगा कि शायर समकालीन यथार्थ का ईमानदार एवं निर्भीक प्रवक्ता है. कहन का नयापन नई ग़़ज़ल की अवधारणा को सम्बल प्रदान करता हैं मैं पूरी दृढ़ता के साथ कह सकता हूं कि समीक्ष्य ग़ज़ल संग्रह की ग़ज़लें ग़ज़ल की चर्चा के साथ रेखांकित की जायेंगी मैं डॉ.महेन्द्र अग्रवाल को उन्हीं के एक शेर के साथ आशीर्वाद एवं हार्दिक बधाई देता हूं.
नयी जुबान, नया जिस्म, नये जेवर भी
नई ग़ज़ल है, नई है ग़ज़ल कहा पहले 
कृति ग़ज़ल कहना मुनासिब है यहीं तक/डॉ.महेन्द्र अग्रवाल/प्रकाशक-नई ग़ज़ल प्रकाशन शिवपुरी म.प्र./मूल्य 120 रूपये/

प्रबन्ध संपादक मोमदीप, पिसनहारी मढ़िया के पास जबलपुर म.प्र.

नई ग़ज़ल, यात्रा और पड़ाव


ग़ज़ल की लोकप्रियता ने कालांतर में हिन्दी कवियों को भी आकर्षित किया परिणामतः वे भी ग़ज़ल लेखन में प्रवृत होने से स्वयं को रोक नहीं सके. ग़ज़ल लेखन के इस अभियान में कतिपय समय-सापेक्ष परिवर्तन देखने को मिले. यहां तक आते-आते ग़ज़ल ने अपनी  परंपरागत प्रकृति को जो कि प्रायः मात्र रूमानी थी जिसमें जीवन संघर्ष का सर्वथा अभाव था, में आश्चर्यजनक परिवर्तन लक्षित हुआ. अतः इसे नई ग़ज़ल का नाम दिया गया. यांें तो अपने अभिनव प्रतिमानों का अनुगमन करते हुए नई ग़ज़ल को दुष्यंत कुमार और उसके पूर्व के हिन्दी कवियों के रचना कार्य में देखा जा सकता है. परंतु इसके सैद्धांतिक निरूपण का अभाव निरंतर खलता रहा. इस महत कार्य की पूर्ति डॉ. महेंद्र अग्रवाल के शोध-गं्रथ ‘ नई ग़ज़ल’ स्वरूप और संवेदना से हुई. नई ग़ज़ल की स्थापना और विकास की दृष्टि से यह एक अद्भुत कृति है. जिसमें नये प्रतिमानों के परिप्रेक्ष्य में ग़ज़ल के उद्भव और विकास के प्रामाणिक इतिहास को प्रस्तुत करते हुए कृतिकार ने, हिन्दी में विकसित हो रहे इस काव्यरूप के लिए एक ऐतिहासिक कार्य किया है. 
महत्व की बात यह है कि डॉ. अग्रवाल स्वयं नई ग़ज़ल के प्रतिभावान हस्ताक्षर हैं. उनके संपादन में नई ग़ज़ल नाम से एक त्रैमासिकी विगत दस वर्षाें से निरंतर प्रकाशित हो रही है. जिसके माध्यम से उन्होंने नई ग़ज़ल के प्रति रचनाकारों को आकर्षित करते हुए उसके विकास में उल्लेखनीय प्रयास किया है. आपने अपने शोधप्रबंध को आधार बनाकर नई ग़ज़ल की अवधारणा को नये रचनाकारों और शोधकर्ताओं को सुलभ कराने के मंतव्य से उनकी यह नवीन कृति नई ग़ज़ल यात्रा और पड़ाव आपके सामने है. 
काव्य के किसी भी रूप को अपने रचनाकर्म का माध्यम बनाने से पूर्व उसकी पृष्ठभूमि तथा प्रगति के सोपानों से अवगत होना परम आवश्यक है, साथ ही उसकी संवेदना और शिल्प को समझना भी अनिवार्य है. नई ग़ज़ल यात्रा और पड़ाव इस दिशा में एक उपयोगी और ज्ञानवर्धक प्रयास है. डॉ. महेन्द्र अग्रवाल के शोधग्रथ के अन्य अध्याय भी कृतियों के आकार में क्रमशः हमारे सामने आयेंगे. जिसके द्वारा नई ग़ज़ल की अवधारणा का प्रामाणिक स्वरूप हमें उपलब्ध हो सकेगा. नई ग़ज़ल के एक प्रातिभ रचनाकार और विवेचक के रूप में डॉ. अग्रवाल ने जो विषद रूप में अपनी एक निष्ठ साधना का परिचय दिया है उससे इस काव्यरूप के प्रवर्तक के रूप में उन्हें सदैव स्मरण किया जायेगा. इस प्रसंग में होने वाले हर विमर्ष में उनके इस मूल्यवान प्रदेय को ससम्मान रेखांकित किया जायेगा. हमें विश्वास है कि नई ग़ज़ल यात्रा और पड़ाव के प्रकाशन से आरंभ हुआ यह प्रयाण हर दृष्टि से 
संबंधित विधा के रचनाकर्म को प्रामाणिकता प्रदान करेगा. जिसको रचनाकारों और पाठकों के बीच ससम्मान स्वीकृति मिलेेगी. 
प्रो. विद्यानन्दन राजीव
नई ग़ज़ल, यात्रा और पड़ाव/ डॉ. महेन्द्र अग्रवाल/प्रथम संस्करण 2011/मूल्य-180 रू./ नई ग़ज़ल प्रकाशन शिवपुरी म.प्र. 

ग़ज़ल और नई ग़ज़ल


नई ग़ज़ल की नई पहल


परिवर्तन विकास का परिचायक होता है। प्रचलित परिपाटी से हटकर जब कोई भी मुद्दा या कार्य अपने अस्तित्व की नींव रखने में संलग्न होता है तो उसे वर्तमान परिस्थितियों से बेशाख्ता जूझना पड़ता है। अपनी जद्दोजहद में वह अपने को स्थापित करने की लड़ाई तो करता ही है उस कार्य शैली के संरचनात्मक परिवर्तन को भी उसे स्पष्ट करना पड़ता है। 
साहित्य में विभिन्न विधाएँ एवं धाराएँ चलीं पर जब नवीन उन्मेष उनमें हुए तो अस्तित्व की लड़ाई चल पड़ी. अपने पूर्वापर से इतर परिवर्तन के साथ नवीन भाव शैली से युक्त कुछ विधाएँ आयीं तो उन्हें ‘नई’ संज्ञा से अभिहित किया गया जिनमें नई कविता, नई कहानी, नवगीत और नई ग़ज़ल  मुख्य हैं .किसी भी क्षेत्र का 
शोध कार्य  नवीन स्थापनाएँ स्थापित करने में सहायक होता हैैं साहित्य में किया गया शोध विधा को नवीन दृष्टि देता है और आगे के मार्ग को भी प्रशस्त करता है साहित्य में तो कई विधाएँ और कई धाराएँ प्रचलित रहीं हैं अतः उनमें निहित सम्भावनाए शोध की मांग करती हैं बल्कि शोध भी समय समय पर नवीन उद्भावनाओं के वशीभूत नयी व्याख्याओं के रेखांकन की मांग करता है.  
डॉ महेन्द्र अग्रवाल की पुस्तक‘‘ग़ज़ल और नई ग़ज़ल’’ में ग़ज़ल के तथ्यात्मक पहलू और उनके विभेद को स्पष्ट करते हुए उनके विचार अपनी भावाभिव्यक्ति में सटीक बैठते हैं.पुस्तक में  ग़ज़ल के जन्म से लेकर वर्तमान तक आते-आते विभिन्न भावभूमि में अनेक परिवर्तनों के वर्णन के साथ नई ग़ज़ल के तर्कसम्मत पहलुओं को भी स्पष्ट किया गया है। ग़ज़ल  का संबंध अरबी माद्दा गैन-जे-लाम से है जिसका अर्थ ‘‘औरतों से बातें करना है’’
अपनी बात को स्पष्ट और प्रमाणित करने के लिये पुस्तक में तीन सोपान रखे गये हैं:- नई ग़ज़ल-परिचय, नई ग़ज़ल - काव्य यात्रा एवं नई ग़ज़ल-विधा विभेदन.प्रथम सोपान के अन्तर्गत ग़ज़ल और नई ग़ज़ल की परिभाषा,सीमा,स्त्रोत,व समीक्षकों की  अवधारणाओं के साथ नई ग़ज़ल   का नयापन एवं अंकन पर प्रकाश डाला गया है. ग़ज़ल  के शाब्दिक अर्थ को स्पष्ट करते हुए डॉ अग्रवाल ने उसकी विभिन्न परिभाषाओं की तर्कसम्मत  व्याख्या करते हुए ग़ज़ल के विभिन्न परिवर्तनों को विकासवाद के सिद्धान्त को जोड़ते हुए जन्तुशास्त्रीय तर्क भी उन्होंने प्रस्तुत किये हैं.सटीक प्रश्न उठाते हुए डॉ अग्रवाल लिखते हैं कि नये दौर की ग़ज़लों को जो नवीन विशिष्टताओं को रेखांकित करती हैं क्या कहें ? ग़ज़ल को ग़ज़ल रहने दिया जाये, यह मानने पर भी इन परिवर्तनों, नवीनताओं, विशिष्टताओं को सूचित करने के निये आखिर कौन सा विशेषण ग़ज़ल के साथ जोड़ें ? ;पृष्ठ 12इसलिये उन्होंने सतर्क अपनी बात को रखते हुए ग़ज़ल के साथ नई संबोधन को उचित ठहराया है। अपनी इस बात को तर्कसम्मत बनाने के लिये उन्होंने विभिन्न ग्रन्थों को पढ़कर और कतिपय विद्वानों की परिभाषाओं को दृष्टिगत रखते हुए नई ग़ज़ल की व्याख्या और विवेचना की है.
नई ग़ज़ल में परिवर्तन के साथ कथ्यगत परिवर्तन भी स्वाभाविक हैं.नई ग़ज़ल ने अपने युग के संघर्ष, वैषम्य, विसंगतियों और विद्रूपताओं को अभिव्यक्ति प्रदान की है.
 नई ग़ज़ल की सीमाओं के अन्तर्गत ग़ज़ल की सीमाओं का अंकन किया गया है, जिनमें केन्द्रीय भाव का अभाव, क़ाफ़िये के बंधन और भावाभिव्यक्ति का निश्चित दायरा इसकी प्रमुख कमियाँ हैं.नई ग़ज़ल स्त्रोत में नई ग़ज़ल को वर्ण संकरी व्युत्पत्ति माना गया है. उर्दू में विकसित होने वाली ग़ज़ल फारसी उर्दू भाषा संस्कृति का मिश्रित रूप है, हिन्दी ग़ज़ल उर्दू-हिन्दी के भाषा संस्कृति के सम्मिश्रण का प्रतिफल है जो हिन्दी का समसायिक कविता के प्रभाव से नई ग़ज़ल के रूप में प्रस्फुटित हुई है. 
डॉ अग्रवाल ने नई ग़ज़लं की विकास यात्रा को मैण्डेल के वंशगति के नियमों के आधार पर सुगमता से समझाने का प्रयास किया है.नई ग़ज़ल  ने जीवन के एकांगी रूप को टटोलने की अपेक्षा जीवन की प्रत्येक पर्त को उघाड़कर देखा है, जीवन की छोटी से छोटी घटना को हर कोण से जांचा परखा है. वर्तमान जीवन को समसामयिक परिस्थितियों में भी और बेहतर और अधिक सुन्दर बनाने का उद्देश्य और प्रगतिशीन दृष्टिकोण भी नये ग़ज़लकारो ने प्रस्तुत किया है. नई ग़ज़ल बदलती हुई परिस्थितियों का प्रतिफल है. नई ग़ज़ल ने सतही भावुकता को त्यागकर युग की बिडम्बनाओं से सम्पृक्त  कर उसमें संघर्ष और आशावाद का स्वर मुखर है। शिल्पगत भी नवीन प्रयोग इसमे किये गये हैं.
द्वितीय सोपान के अन्तर्गत नई ग़ज़ल की काव्य यात्रा पर प्रकाश डाला गया है।नई ग़ज़ल की भावभूमि , सृजन की मानसिकता के साथ-साथ आठवें दशक से पूर्व की ग़ज़लों, आठवें दशक की ग़ज़लें , नवें दशक की ग़ज़लों का भी विषद् वर्णन किया है.तृतीय सोपान के अन्तर्गत  नई ग़ज़ल- विधा विभेदन का जिक्र करते हुए उसे कई स्तरों पर विवेचित किया है. कालक्रम, परिदर्शन, कहन, भाषा और प्रतीक व बिम्ब के आधार पर उसे व्याख्यायित करने का प्रयास किया है.
त्रुटियाँ एवं कमियाँ हर पुस्तक का आधारभूत हिस्सा होता है पर ये कमियाँ  शोध कार्य की प्रासंगिता को नष्ट नहीं होने देतीं. विकासयात्रा में ही काव्ययात्रा का समावेश हो सकता था अलग से अध्याय की आवश्यकता नहीं थी ग़ज़ल के नयेपन को स्पष्ट करने में कई स्थानों पर पुनरावृत्ति हुयी है.
विभिन्न संदर्भों के साथ अस्सी पृष्ठों में समाहित आलोचनात्मक पुस्तक आलोचना के सभी मानदण्ड पूर्ण करने में सक्षम है. ग़ज़ल पर अन्य विधाओं की तुलना में कम ही लिखा गया है.प्रस्तुत पुस्तक जिज्ञासु ग़ज़ल प्रेमियों के साथ-साथ शोधार्थियों के भी कई प्रश्नों की पूर्ति करने में समर्थ सिद्व होगी. डॉ अग्रवाल स्वयं भी नई ग़ज़ल के हस्ताक्षर हैं अतः उन्होंने बड़ी ही तल्लीनता एवं गहराई से इस शोध को पूर्णता प्रदान की है. उन्होंने ग़ज़ल को नये आयाम और नयी उद्भावनाओं की निर्मिति में योगदान दिया है. ग़ज़ल को हुस्न और इश्क की बंदिशों से दूर कर उसे समसामयिक समस्याओं के निकट लाने में ऐसी विचारवान् , शोधपरक पुस्तकों और नए ग़ज़लकारों की महती भूमिका रही है.एक अच्छे ग्रन्थ के लिये डॉ महेन्द्र अग्रवाल बधाई के पात्र हैं.
समीक्षक- डॉ पद्मा शर्मा पुस्तक- ग़ज़ल और नई ग़ज़ल लेखक- डॉ महेन्द्र अग्रवाल
प्रकाशन- नई ग़ज़ल प्रकाशन शिवपुरी म. प्र.मूल्य- 120 रुपये

नई ग़ज़ल


नई ग़ज़ल  
संवेदनाएं शाश्वत होती हैं, उन्हें नई या पुरानी संज्ञा से अभिहित नहीं किया जा सकता, उनकी अभिव्यक्तिगत शैली नई या पुरानी हो सकती है. हिन्दी साहित्य में इस अभिव्यक्ति को ‘नई’ विशेषण से संयुक्त कर नवोन्मेष की उद्घोषणा समय समय पर की जा रही है नई कविता, नवगीत नई कहानी आदि ऐसी ही विशेषणयुक्त विधाएं हैं.
उर्दू की ग़ज़ल विधा को हिन्दी साहित्य में भी अब निर्विवाद रूप से ‘हिन्दी ग़ज़ल’ के रूप में स्वीकार कर लिया गया है. ज़ाहिर  है, अन्य विधाओं की भांति यह भी नई विशेषण से संयुक्त होकर नई ग़ज़ल के रूप में हिन्दी और उर्दू साहित्य में छा गई; इस ‘नई ग़ज़ल’ के संस्थापक ग़ज़लकारों में निःसंदेह डॉ. महेन्द्र अग्रवाल का अप्रतिम अवदान है. नई ग़ज़ल के अंतर्बाह्य स्वरूप का सूक्ष्म निरूपण प्रवृत्तिगत विश्लेषण और शोधपरक मूल्यांकन प्रस्तुत कृति में डॉ. अग्रवाल की सशक्त लेखनी से हुआ है.
संवदेना से शून्य साहित्य प्राणहीन देह से अधिक नहीं होता है. डॉ. महेन्द्र अग्रवाल की ग़ज़लों की बुनावट संवदेनाओं से ही हुई है और यही संवेदना नई ग़ज़ल की प्रस्तुत विश्लेषणात्मक कृति में अद्योपांत व्याप्त है.
नई ग़ज़ल के सर्जकों तथा इसके गंभीर व सामान्य अध्येताओं को प्रस्तुत कृति पथ-प्रदर्शक होगी.
डॉ. लखनलाल खरे, विभागाध्यक्ष हिन्दी, शा. महा. विद्यालय कोलारस शिवपुरी म.प्र.

बात दिल की ही सही पर आप से कहना भी है


बात दिल की ही सही पर आप से कहना भी है
डॉ. महेन्द्र अग्रवाल जी आप भी कमाल करते हैं! पहले तो आप ग़ज़ल की आबयारी के लिए मुश्किल ज़मीन तलाश करते हैं फिर उसे अपने मवाफ़िक बनाकर उसे पानी कर लेते हैं! और फिर इस पानी में आप अपने आंसू मिलाकर उसमें इज़ाफा करते हैं! फिर उसमें आप जीवन के दुखों को घोल देते हैं! जमाने की तल्खि़यों का इत्र मिलाते हैं. अपनी मुस्कुराहट की चांदी का वरक लगाते हैं. मुख्तलिफ़ मौजूआत को पिस्ते, बादाम और किशमिश की तरह सजाते हैं, हां कभी-कभी कोई-कोई मौजूअ का बादाम कड़वा निकल जाता है, लेकिन दूसरे तमाम मेवे इस ऐब पर सलीके से पर्दा डाल देते हैं.
यूं भी ज़माने की महरूमियों, दोस्तों का कड़वा कसीला लहजा, अपनों की बेवफाई, समाज की रावण रेखा, सियासत का का आदमखोरपन, इन सबने मिलकर ग़ज़ल को भी अपने रेशमी लहजे को पुराने घर की खूंटियांे पर टांग देने पर मजबूर कर दिया है, और फिर ग़ज़ल अगर अपने अहद से आंखें न मिला सके तो कलम से लिखने के बजाय शलवारों में नारा डालने का काम लेना चाहिए.
मैं आपकी ग़ज़लों का बहुत पुराना प्रशंसक हूं. नई ग़ज़ल में आपका नाम लोग मोहब्बत से लेते हैं. अपनी कारोबारी मसरूफ़ियतों के बाद भी आपने ग़ज़ल के गेसुओं को संवारने में कभी कोताही नहीं की है. उर्दू में भी आपकी ग़ज़लों की एक किताब क़ायदे से आनी चाहिए ताकि उर्दू पढ़ने वाले भी आपके कलाम से महरूम न रहें. अगर आप पसंद करेंगे तो ये छान फटक का काम मैं भी कर सकता हूं. आपको पढ़ते हुए ताज़ाकारी और नयेपन का अहसास होता है. ज़ाहिर है कि आप अभी ताज़ा दम हैं. आपसे लिखने वालों को ढेर सारी उम्मीदें हैं.
वह शायर या कवि जिन्हें पढ़ते हुए अपनेपन का एहसास होता है. अपना दुख बोलता हुआ महसूस होता है, अपना ग़म आंखें मलते हुए सामने आ जाता हो, उनमें एक नाम डॉ. महेन्द्र अग्रवाल का है. ग़ज़ल के लिए सबसे ना मुनासिब इलाके में ग़ज़ल की एक दुनिया बसा देना, फिर उसकी ऩाज बरदारी करना और फिर पूरे विश्वासा के साथ ‘ ग़ज़ल कहना मुनासिब है’ कह देना आसान काम नहीं था. ग़ज़ल यूं तो बहुत आसान विधा दिखाई देती है, लेकिन शेर के दो मिस़रों में अपनी बात को ए.के.47 की बौछार बना देने का कमाल सबके हिस्से में नहीं आता. आपने शब्दों की घोर तपस्या के बाद ये मुक़ाम हासिल कर लिया है.
हां अब आगे का रास्ता आपके लिए भी काफ़ी मुश्किल साबित होता, क्योंकि ना खुदाए-सुखन मीर तक़ी मीर को भी कहना पड़ गया था कि
ग़ज़ल कहनी न आती थी तो सौ सौ शेर कहते थे
मगर ऐ मीर अब इक शेर भी मुश्किल से होता है.
मुनव्वर राना, कोलकाता