Tuesday 1 November 2011

बात दिल की ही सही पर आप से कहना भी है


बात दिल की ही सही पर आप से कहना भी है
डॉ. महेन्द्र अग्रवाल जी आप भी कमाल करते हैं! पहले तो आप ग़ज़ल की आबयारी के लिए मुश्किल ज़मीन तलाश करते हैं फिर उसे अपने मवाफ़िक बनाकर उसे पानी कर लेते हैं! और फिर इस पानी में आप अपने आंसू मिलाकर उसमें इज़ाफा करते हैं! फिर उसमें आप जीवन के दुखों को घोल देते हैं! जमाने की तल्खि़यों का इत्र मिलाते हैं. अपनी मुस्कुराहट की चांदी का वरक लगाते हैं. मुख्तलिफ़ मौजूआत को पिस्ते, बादाम और किशमिश की तरह सजाते हैं, हां कभी-कभी कोई-कोई मौजूअ का बादाम कड़वा निकल जाता है, लेकिन दूसरे तमाम मेवे इस ऐब पर सलीके से पर्दा डाल देते हैं.
यूं भी ज़माने की महरूमियों, दोस्तों का कड़वा कसीला लहजा, अपनों की बेवफाई, समाज की रावण रेखा, सियासत का का आदमखोरपन, इन सबने मिलकर ग़ज़ल को भी अपने रेशमी लहजे को पुराने घर की खूंटियांे पर टांग देने पर मजबूर कर दिया है, और फिर ग़ज़ल अगर अपने अहद से आंखें न मिला सके तो कलम से लिखने के बजाय शलवारों में नारा डालने का काम लेना चाहिए.
मैं आपकी ग़ज़लों का बहुत पुराना प्रशंसक हूं. नई ग़ज़ल में आपका नाम लोग मोहब्बत से लेते हैं. अपनी कारोबारी मसरूफ़ियतों के बाद भी आपने ग़ज़ल के गेसुओं को संवारने में कभी कोताही नहीं की है. उर्दू में भी आपकी ग़ज़लों की एक किताब क़ायदे से आनी चाहिए ताकि उर्दू पढ़ने वाले भी आपके कलाम से महरूम न रहें. अगर आप पसंद करेंगे तो ये छान फटक का काम मैं भी कर सकता हूं. आपको पढ़ते हुए ताज़ाकारी और नयेपन का अहसास होता है. ज़ाहिर है कि आप अभी ताज़ा दम हैं. आपसे लिखने वालों को ढेर सारी उम्मीदें हैं.
वह शायर या कवि जिन्हें पढ़ते हुए अपनेपन का एहसास होता है. अपना दुख बोलता हुआ महसूस होता है, अपना ग़म आंखें मलते हुए सामने आ जाता हो, उनमें एक नाम डॉ. महेन्द्र अग्रवाल का है. ग़ज़ल के लिए सबसे ना मुनासिब इलाके में ग़ज़ल की एक दुनिया बसा देना, फिर उसकी ऩाज बरदारी करना और फिर पूरे विश्वासा के साथ ‘ ग़ज़ल कहना मुनासिब है’ कह देना आसान काम नहीं था. ग़ज़ल यूं तो बहुत आसान विधा दिखाई देती है, लेकिन शेर के दो मिस़रों में अपनी बात को ए.के.47 की बौछार बना देने का कमाल सबके हिस्से में नहीं आता. आपने शब्दों की घोर तपस्या के बाद ये मुक़ाम हासिल कर लिया है.
हां अब आगे का रास्ता आपके लिए भी काफ़ी मुश्किल साबित होता, क्योंकि ना खुदाए-सुखन मीर तक़ी मीर को भी कहना पड़ गया था कि
ग़ज़ल कहनी न आती थी तो सौ सौ शेर कहते थे
मगर ऐ मीर अब इक शेर भी मुश्किल से होता है.
मुनव्वर राना, कोलकाता

No comments:

Post a Comment