Saturday 11 February 2012

कविता और ग़ज़ल


कविता और ग़ज़ल
डाॅ लखन लाल खरे
कविता या शायरी कोमलतम भावों की कोमलतम शाब्दिक अनुभूति है जिसकी शीतल तरलता का आभास सहृदय ही कर सकता है. ऐसा इसलिए कि बिना संवेदनात्मक स्पन्दन के न तो कविता लिखी जा सकती है और न उसका रसास्वादन किया जा सकता है. यह संवेदनात्मक आवेग जिस कविता में जितना गहन होगा कविता उतनी ही तीव्रतम अनुभूति के निकट होगी. संवेदना से मण्डित अनुभूति  व्यष्टिगत होती है, परंतु उसका विस्तार व्यापक होता है. डाॅ. महेन्द्र अग्रवाल की प्रस्तुत कृति में संग्रहीत ग़ज़लों की भावभूमि का विस्तार कुछ ऐसा ही है, जिसके केंद्र में प्रेम और प्रेम की विविध झांकियां है. इन ग़ज़लों को पढ़ते समय होने वाली सात्विक गुदगुदी कवि-कर्म की पूर्णता का स्वतः प्रमाण है.
काव्य में प्रेम और प्रणय की सूक्ष्म अभिव्यंजना के लिए कवि प्रारंभ से ही प्रकृति पर अबलम्बित रहे हैं. डाॅ. महेन्द्र प्रकृति का साथ कैसे छोड़ सकते हैं? संकलन की कोई ग़ज़ल ऐसी नहीं है, जो प्रकृति की गोद में न खेली हो. उद्घाटक रचना ही मुस्कुराकर पाठकों का स्वागत करती है
चंाद से धरती पे आई इक परी सी चांदनी
छा गई आंखों में यूं चंचल सखी सी चांदनी
ग़ज़ल की उपर्युक्त पंक्तियों की ‘परी सी चांदनी’ में कोई मौलिकता परिलक्षित नहीं होती, परंतु ‘आंखों में चंचल सखी सी चांदनी’ का प्रयोग अद्भुद है और कवि का तो चांदनी के बारे में सोचना है कि-
शायरों की नज़र, कहां आती
ग़र वहां चांदनी, नही जाती
प्रकृति कि यह छटा इन ग़ज़लों में आलंबन और उद्दीपन- दोनों रूपों में व्याप्त है. उद्दीपन का यह मनोहारी शब्दचित्र दृष्टव्य है-
सुबह से, दोपहर से, इस वजह हम सांझ से ऊबे
किसी को डूबकर चाहा, किसी की चाह में डूबे
कोई  महका हुआ लमहा ठहर जाये तो अच्छा हो
हमेशा रात को खिलकर सुबह मुरझाए मंसूबे
व्यक्ति के रागात्मक संबंध संयोग और वियोग के तानों-बानों से बुने होते हैं. यह प्रकृत और शाश्वत बुनावट है. प्रस्तुत कृति में संयोग और वियोगात्मक राग की शास्त्रीय दशाएं स्वतः ही प्रादुर्भूत हो उठी हैं. यद्यपि इन ग़ज़लों में संयोगात्मक दशाओं का अभाव और  वियोगात्मक दशाओं का प्राधान्य है. यहां यह उल्लेख्य  है कि वियोगात्मक दशाओं का निरूपण काव्यशास्त्रियों ने नायिका  को केंद्रबिंदु मानकर किया है. डाॅ. महेन्द्र की ग़ज़लों का विप्रलंभ रीतिकालीन कवि घनानन्द का ‘मौनमधि पुकार’ है वियोग की  कतिपय दशाओं के चित्र दृष्टव्य हंै-
स्मृति तेरा चेहरा उभर गया जैसे
दिल में सूरज उतर गया जैसे
एक व्याकुल हिरन के नयनों में
अक्स प्रियतम का भर गया जैसे
उद्वेग क़यामत आ रही है बात रख जाओ जवानी में
चले आओ, चले आओ, चले आओ जवानी में
पलटकर वार कर देगी किसी दिन आग है ये भी
उदासी को अगर तुम रोज फुसलाओ जवानी में
प्रलापः वक़्त के थपेड़ों को, झेलना है ढह ढह कर
कि़स्त कि़स्त रिसना है, कि़स्त कि़स्त बह बहकर
दिन मज़ार की मानिंद, शब भुतैली टहनी सी
सिर रखा हथेली पर, जि़न्दगी यूँ सह सह कर
गुण वर्णन घिरा है ख़ार से, वैसे गुलाब है ज़ालिम
तुम्हारा हुस्न, तुम्हारा शबाब है ज़ालिम
खिले हैं होंठ, मगर आँख में शरारत है
हक़ीक़तों के बदन पर नक़ाब है ज़ालिम
उन्माद दिल से, दिल की लगी, नहीं जाती
ज़हन तक अब खुशी, नहीं जाती
भावना के नयन, बहुत भावुक
आंसुओं की नमी, नहीं जाती
व्याधि: लमहा लमहा उदासी रही.
जि़न्दगी यूं रूंआसी  रही.
ख़्वाब भटका किये दरबदर
सोच की देह प्यासी  रही.
करूणा
शेष दो दशाएं अभिलाषा और चिंता के परिलक्षण में तो ग़ज़लों के अधिकांश शेर हैं. जड़ता और मरण के उदाहरण प्रायः शून्य हैं.
ग़ज़ल का मिजाज हिन्दी कविता से थोड़ा भिन्न है जहां हिन्दी कविता तुकांत भी हो सकती है और अतुकांत भी, वहां ग़ज़ल में अतुकांत प्रवृत्ति के लिए कोई स्थान नहीं है. हिन्दी कविता में- एक कविता में-एक ही भाव की प्रारंभ से अंत तक व्याप्ति रहती है. बिम्ब बदलते रहते हैं, परंतु ग़ज़ल के प्रत्येक शेर का स्वतंत्र अस्तित्व होता है. डाॅ. महेन्द्र की यह कृति हिन्दी कविता और ग़ज़ल की विधागत प्रवृत्तियों का अद्भुद् समन्वय है. अनेक ग़ज़लें इस कृति मेें ऐसी हंै, जो हिन्दी कविता का आभास कराती हंै, जिनमेें एक ही भाव की अविच्छिन्नता है.
इन ग़ज़लों की एक और विशेषता है इसके पारंपरिक स्वरूप के प्रति आग्रह.  वैसे भी अरबी शब्द ‘ ग़ज़ल’ से तात्पर्य ऐसी पद्यात्मक रचना से है जिनमें नायिका के सौन्दर्य एवं उसके प्रति उत्पन्न प्रेम का वर्णन हो. यह प्रेम संयोगात्मक भी हो सकता है, वियोगात्मक भी. डाॅ. महेन्द्र अग्रवाल की इन ग़ज़लों में संयोगावस्था के चित्र कम ही हैं. विप्रलंभ का ही प्राधान्य है. इस प्रकार ग़ज़ल के पारंपरिक स्वरूप की प्रस्तुति के रूप में कृति का महत्व है. परंतु कृति का अभिव्यंजना पक्ष परंपरा से आबद्ध नहीं है. प्रभावी व्यंजकता के लिए नये मुहावरों का प्रयोग, सहज शब्द-ग्राह्यता तथा नवीन व परिमार्जित भाषा इस कृति के आकर्षक पक्ष हैं. पिघल गये अवसाद, ‘शब्द संकोच में माथे पे पड़े बल की तरह’, फिर किसी की याद आदमकद मेरे कमरे में है, ‘आइना दिन काटता है कील  पर लटका हुआ’, ‘ तेरे किस्सों से ‘अमृताजी’ का, एक उपन्यास भर गया जैसै- अनेक नवीन प्रयोग ग़ज़लों में दृष्टव्य हैं परंतु एक-दो स्थलों पर ‘अति नवीनता’ के उत्साह से ग़ज़लकार ऐसे भी प्रयोग कर बैठा है, जो उन पाठकों के लिए अग्राह्य हो सकते हैं, जिन्हें उसकी पृष्ठभूमि से परिचय नही है. जैसे
आज छू पाये हैं,‘उमराव’ के होठों की सतह
शेर भटके थे ‘शहरयार’ की ग़ज़ल की तरह.
तेरे किस्सों से ‘अमृता’ जी का
एक उपन्यास भर गया जैसे
शब्द हर शब्द ‘शिवानी‘ की कथा है जैसे
जि़न्दगी तुझसे बिछुड़ने की सज़ा है जैसे
डाॅ. महेन्द्र की इन ग़ज़लों की एक और विशेषता है-उनका भारतीय काव्य-चिंतन धारा के निकट होना. फारसी ग़ज़लों में वियोग दशा के चित्रण में जैसे ऊहात्मक प्रयोग हुए हैं (दिल के टुकडे होना, दिल के पार खंजर का उतरना, खून के आंसू बहना आदि)  उनसे ग़ज़लकार ने अपनी ग़ज़लों की रक्षा की है. सर्वत्र एक सादगी पसरी हुई दृष्टिगोचर होती है. यही सादगी विवेच्य कृति में संग्रहीत ग़ज़लों का गहना है.
डाॅ महेन्द्र सिद्धहस्त अनुभवी और प्रौढ़ ग़ज़लकार हैं. उन्हें ग़ज़ल कहने की तहजीब है. वे ग़ज़ल कहते नहीं है, जीते हैं. उन्होंने अपना जीवन ही ग़ज़ल के नाम कर दिया है. लोकप्रिय व चर्चित त्रैमासिकी -‘नई ग़ज़ल’ के सफल संपादक डाॅ. महेन्द्र पूरी तरह समर्पित हंै- ग़ज़ल के लिए
ग़ज़ल को छोड़ना, इस उम्र में मुमकिन नहीं मुझसे
जमा पंूजी बचा रखी है, वो सब खोलना होगा
इतना ही नहीं, ये ग़ज़लें केवल प्रेम की देह को गुदगुदाती भर नहीं है, एक सार्थक संदेश भी छोड़ती हैं .
लफ्ज़ों में बो रहा हूं मोहब्बत की आरज़ू
हिन्दी का एक रंग हूं उर्दू अदा के साथ
मुझे विश्वास है पिछले तीनों गजल संग्रहों की तरह इस कृति का भी हिन्दी और उर्दु जगत में जोरदार स्वागत होगा
डाॅं लखन लाल खरे
विभागाध्यक्ष-हिन्दी
शासकीय श्रीमंत माधवराव सिंधिया महाविद्यालय
कोलारस, शिवपुरी म0प्र0




ग़ज़ल में नयेपन के अन्वेषी-डा महेन्द्र अग्रवाल


ग़ज़ल में नयेपन के अन्वेषी-डा. महेन्द्र अग्रवाल
चन्द्रसेन विराट
ग़ज़ल के अधिकारी विद्वान एवं नये ग़ज़ल के रचयिता डाॅ. महेन्द्र अग्रवाल हमेशा ग़ज़ल में नयेपन के अन्वेषण में लगे रहते हैं. अपनी पत्रिका ही वे नई ग़ज़ल के नाम से निकाल रहे हैं. वर्षाें से नियमित लगातार नई ग़ज़ल को समर्पित यह निष्ठावान विद्वान स्वयं एक कुशल ग़ज़लकार तो है ही नई ग़ज़ल का एक कुशल संपादक भी है.
अभी अभी  उनका नया ग़ज़ल -संग्रह आया है इसने भी चैंकाया. नाम का नयापन देखिये. बादलों को छूना है, चाँदनी से मिलना है, अपने नयेपन से आकर्षित करता है. इसमें सम्मिलित साठ ग़ज़लों  में यही नयेपन की कोशिश उसे पठनीय बनाती है.
ग़ज़ल में बहरों का निर्दाेष निर्वाह उन्हें सांगितिकता प्रदान करता है तो कथ्य की विलक्षणता उसे रोचकता प्रदन करती है. वे ग़ज़लियत या तगज्जुल बनाये रखते हुए नये विन्यास, तेवर एवं कलेवर के अन्वेषण में लगे रहते हैं.
अपनी रचनाओं  में उनकी यह नयेपन के अनुरक्षण की चिंता स्पष्ट झलकती है. वे ग़ज़ल एवं उसके नयेपन को लेकर केवल चिंतित ही  नहीं रहते, उसे व्यक्त भी करते चलते हैं. इस विशिष्ट भाव को लेकर उन्होंने बहुत शेर कहे हैं.
लोग कहते रहे यकीं न हुआ
हमसे ग़ज़लों की आबरू है अभी
बह रही हो झरने सी तुम मेरी रगों में जो
सोचता हूं फिर मुझको शायरी से मिलना है
अपनी शायरी  से भेंट के प्रति आश्वस्त यह ग़ज़लकार जानता भी है कि उसके कार्य का समर्थन उसके सुधी पाठक भी करते रहे हैं. वे ऐसे ग़ज़लकार हैं जो अपनी  रचना में ग़ज़ल की निमिती एवं उसके रस परिपाक की चर्चा किये बगैर रह ही नहीं सकते-
यूं तो साया हो रही हैं ये ग़ज़ल उनवान से
अब रिसालों में कहीं कोई ग़ज़ल है या नहीं
आज छू पायेे हैं उमराव के होठों की सतह
शेर भटके थे शहरयार की ग़ज़ल की तरह
ग़ज़ल पर शेर निकाले बिना उनकी ग़ज़ल पूरी ही नहीं होती-
खुश्क होठों पे उतर आयेंगे कुछ शेर नये
आप अहिस्ता मेरी आंख में पानी लिखना
ग़ज़ल उनमें कैसी रच बस गई है, देखें-
बस गई है शरीर में मेरे
खून से शायरी नहीं जाती
ये तो अच्छा है ग़ज़ल कहने लगा मैं खुद ही
लोग सुनते भी कहां आज फसाने मेरे
ग़ज़ल का जिक्र किये बिना उनका ग़ज़लकार संतुष्ठ ही नहीं होता-
नींद बचपन की, सपन बाप के, मां की लोरी
छोड़ दूंगा मैं ग़ज़ल जि़न्दगी इतना  दे दे
ये मुनासिब है ग़ज़ल खुद ही तलाशे इक दिन
ऐ खुदा जाना कहां है मुझे नक्शा दे दे
हसरते दिल की है अंगड़ाई ग़ज़ल होठों पर
वक़्त बेवक़्त चली आई, ग़ज़ल  होठों पर
गुजरे हंै तेरी रूह को छूकर नई ग़ज़ल
यादें तमाम उम्र, पुरानी लिये हुए
अपनी शायरी के लिए उन्होंने अपनी जि़न्दगी की भी फिक्र नहीं की है, देखें-
दरबदर खुद ही जि़न्दगी की है
हमने संजीदा शायरी की है
जेब में इक ग़ज़ल पड़ी होगी
उम्र भर सिर्फ शायरी की है
ग़ज़ल लिखते हुए वे सावधान रहते हैं कि कहीं अस्पष्टता नहीं रह जाए. शब्द सब अपना सही अर्थ खोलें, तभी बात बनती है.
तकाजा आंख का आंसू को जब तब खोलना होगा
ग़ज़ल कहना है तो लफ़्जों का मतलब खोलना होगा
वे ग़ज़ल की शायरी करते हैं तो आश्वस्त हैं कि
होंठ पर जो रच गई है रंगे मेंहदी की तरह
रोंनकें देगी सदा ये शायरी लेकर चलो
उनकी ग़ज़ल में हिन्दी का रंग, उर्दू की अदा के साथ आया है-
लफ़्जों में बो रहा हूं मुहब्बत की आरज़ू
हिन्दी का एक रंग हूं उर्दू अदा के साथ
समकालीन जि़न्दगी  पर उनकी नज़र बराबर रहती है. आज की जलती हुई जि़न्दगी पर उन्होंने कहा है-
जि़न्दगी किस मुकाम पर आई
शेर है या नये शरारे है
देखा आपने नई ग़ज़ल का यह पुख्ता शायर बिना ग़ज़ल का जिक्र किये ग़ज़ल कहता ही नहीं यही उसकी खूबी है.
इसीलिए कविवर नीरजजी ने उनकी ग़ज़लों के लिए लिखा है-आपके अनेक शेर ऐेसे हैं जिन्हें लोग लिखा है- आपके अनेक शेर ऐसे हैं जिन्हें लोग बड़े प्यार से सराहेंगे और गुनगुनायेंगे. प्रो. विद्यानन्दन राजीव लिखते हैं- भविष्य में लिखे जाने वाले ग़ज़ल विषयक इतिहास में परिवर्तन की पहल को जब दर्ज किया जाएगा, उस समय ये ग़ज़लें बदलाव के साक्षी रूप में स्वीकृत की जाएगी.
डाॅ. लखनलाल खरे ने लिखा है-डाॅ. महेन्द्र की इन ग़ज़लों की एक और विशेषता है उनका भारतीय काव्य चिंतन धारा के निकट होना..............डाॅ. महेन्द्र सिद्धहस्त अनुभवी और प्रौढ़ ग़ज़लकार है उनकी ग़ज़ल कहने की तहजीब है वे ग़ज़ल कहते नहीं है, जीते हैं. उन्होंने अपना जीवन ही ग़ज़ल के नाम कर दिया है.
डाॅ. महेन्द्र का ग़ज़ल के प्रति जो समर्पण भाव है हर दिल है उनके एक शेर के साथ सप्रमाण अपनी बात समाप्त करता हूं.
ग़ज़ल को छोड़ना इस उम्र में मुमकिन नहीं मुझसे
जमा पूंजी बचा रक्खी है, वह सब खोलना होगा..