Saturday 11 February 2012

ग़ज़ल में नयेपन के अन्वेषी-डा महेन्द्र अग्रवाल


ग़ज़ल में नयेपन के अन्वेषी-डा. महेन्द्र अग्रवाल
चन्द्रसेन विराट
ग़ज़ल के अधिकारी विद्वान एवं नये ग़ज़ल के रचयिता डाॅ. महेन्द्र अग्रवाल हमेशा ग़ज़ल में नयेपन के अन्वेषण में लगे रहते हैं. अपनी पत्रिका ही वे नई ग़ज़ल के नाम से निकाल रहे हैं. वर्षाें से नियमित लगातार नई ग़ज़ल को समर्पित यह निष्ठावान विद्वान स्वयं एक कुशल ग़ज़लकार तो है ही नई ग़ज़ल का एक कुशल संपादक भी है.
अभी अभी  उनका नया ग़ज़ल -संग्रह आया है इसने भी चैंकाया. नाम का नयापन देखिये. बादलों को छूना है, चाँदनी से मिलना है, अपने नयेपन से आकर्षित करता है. इसमें सम्मिलित साठ ग़ज़लों  में यही नयेपन की कोशिश उसे पठनीय बनाती है.
ग़ज़ल में बहरों का निर्दाेष निर्वाह उन्हें सांगितिकता प्रदान करता है तो कथ्य की विलक्षणता उसे रोचकता प्रदन करती है. वे ग़ज़लियत या तगज्जुल बनाये रखते हुए नये विन्यास, तेवर एवं कलेवर के अन्वेषण में लगे रहते हैं.
अपनी रचनाओं  में उनकी यह नयेपन के अनुरक्षण की चिंता स्पष्ट झलकती है. वे ग़ज़ल एवं उसके नयेपन को लेकर केवल चिंतित ही  नहीं रहते, उसे व्यक्त भी करते चलते हैं. इस विशिष्ट भाव को लेकर उन्होंने बहुत शेर कहे हैं.
लोग कहते रहे यकीं न हुआ
हमसे ग़ज़लों की आबरू है अभी
बह रही हो झरने सी तुम मेरी रगों में जो
सोचता हूं फिर मुझको शायरी से मिलना है
अपनी शायरी  से भेंट के प्रति आश्वस्त यह ग़ज़लकार जानता भी है कि उसके कार्य का समर्थन उसके सुधी पाठक भी करते रहे हैं. वे ऐसे ग़ज़लकार हैं जो अपनी  रचना में ग़ज़ल की निमिती एवं उसके रस परिपाक की चर्चा किये बगैर रह ही नहीं सकते-
यूं तो साया हो रही हैं ये ग़ज़ल उनवान से
अब रिसालों में कहीं कोई ग़ज़ल है या नहीं
आज छू पायेे हैं उमराव के होठों की सतह
शेर भटके थे शहरयार की ग़ज़ल की तरह
ग़ज़ल पर शेर निकाले बिना उनकी ग़ज़ल पूरी ही नहीं होती-
खुश्क होठों पे उतर आयेंगे कुछ शेर नये
आप अहिस्ता मेरी आंख में पानी लिखना
ग़ज़ल उनमें कैसी रच बस गई है, देखें-
बस गई है शरीर में मेरे
खून से शायरी नहीं जाती
ये तो अच्छा है ग़ज़ल कहने लगा मैं खुद ही
लोग सुनते भी कहां आज फसाने मेरे
ग़ज़ल का जिक्र किये बिना उनका ग़ज़लकार संतुष्ठ ही नहीं होता-
नींद बचपन की, सपन बाप के, मां की लोरी
छोड़ दूंगा मैं ग़ज़ल जि़न्दगी इतना  दे दे
ये मुनासिब है ग़ज़ल खुद ही तलाशे इक दिन
ऐ खुदा जाना कहां है मुझे नक्शा दे दे
हसरते दिल की है अंगड़ाई ग़ज़ल होठों पर
वक़्त बेवक़्त चली आई, ग़ज़ल  होठों पर
गुजरे हंै तेरी रूह को छूकर नई ग़ज़ल
यादें तमाम उम्र, पुरानी लिये हुए
अपनी शायरी के लिए उन्होंने अपनी जि़न्दगी की भी फिक्र नहीं की है, देखें-
दरबदर खुद ही जि़न्दगी की है
हमने संजीदा शायरी की है
जेब में इक ग़ज़ल पड़ी होगी
उम्र भर सिर्फ शायरी की है
ग़ज़ल लिखते हुए वे सावधान रहते हैं कि कहीं अस्पष्टता नहीं रह जाए. शब्द सब अपना सही अर्थ खोलें, तभी बात बनती है.
तकाजा आंख का आंसू को जब तब खोलना होगा
ग़ज़ल कहना है तो लफ़्जों का मतलब खोलना होगा
वे ग़ज़ल की शायरी करते हैं तो आश्वस्त हैं कि
होंठ पर जो रच गई है रंगे मेंहदी की तरह
रोंनकें देगी सदा ये शायरी लेकर चलो
उनकी ग़ज़ल में हिन्दी का रंग, उर्दू की अदा के साथ आया है-
लफ़्जों में बो रहा हूं मुहब्बत की आरज़ू
हिन्दी का एक रंग हूं उर्दू अदा के साथ
समकालीन जि़न्दगी  पर उनकी नज़र बराबर रहती है. आज की जलती हुई जि़न्दगी पर उन्होंने कहा है-
जि़न्दगी किस मुकाम पर आई
शेर है या नये शरारे है
देखा आपने नई ग़ज़ल का यह पुख्ता शायर बिना ग़ज़ल का जिक्र किये ग़ज़ल कहता ही नहीं यही उसकी खूबी है.
इसीलिए कविवर नीरजजी ने उनकी ग़ज़लों के लिए लिखा है-आपके अनेक शेर ऐेसे हैं जिन्हें लोग लिखा है- आपके अनेक शेर ऐसे हैं जिन्हें लोग बड़े प्यार से सराहेंगे और गुनगुनायेंगे. प्रो. विद्यानन्दन राजीव लिखते हैं- भविष्य में लिखे जाने वाले ग़ज़ल विषयक इतिहास में परिवर्तन की पहल को जब दर्ज किया जाएगा, उस समय ये ग़ज़लें बदलाव के साक्षी रूप में स्वीकृत की जाएगी.
डाॅ. लखनलाल खरे ने लिखा है-डाॅ. महेन्द्र की इन ग़ज़लों की एक और विशेषता है उनका भारतीय काव्य चिंतन धारा के निकट होना..............डाॅ. महेन्द्र सिद्धहस्त अनुभवी और प्रौढ़ ग़ज़लकार है उनकी ग़ज़ल कहने की तहजीब है वे ग़ज़ल कहते नहीं है, जीते हैं. उन्होंने अपना जीवन ही ग़ज़ल के नाम कर दिया है.
डाॅ. महेन्द्र का ग़ज़ल के प्रति जो समर्पण भाव है हर दिल है उनके एक शेर के साथ सप्रमाण अपनी बात समाप्त करता हूं.
ग़ज़ल को छोड़ना इस उम्र में मुमकिन नहीं मुझसे
जमा पूंजी बचा रक्खी है, वह सब खोलना होगा..

No comments:

Post a Comment