Tuesday 1 November 2011

ग़ज़ल कहना मुनासिब है यहीं तक



ग़ज़ल के नये जिस्म को नये जेवर दिये हैं,डॉ.महेन्द्र अग्रवाल ने -आचार्य भगवत दुबे


दुष्यंत के पहले और बाद में ग़ज़ल के दो स्वरूप देखने मिलते हैं एक पूरी तरह से उर्दू से सम्पन्न और दूसरा उर्दू मिश्रित. दुष्यंत के पश्चातवर्ती ग़ज़लकारों में भी दो श्रेणी के ग़ज़लकार हैं एक वे जो शुद्ध हिन्दी की तत्सम शब्दावली के साथ ग़ज़ल लिख रहे हैं और उसे हिन्दी ग़ज़ल कहने के पक्षधर हैं यद्यपि चन्द्रसेन विराट ने ग़ज़ल को मुक्तिका का नाम दिया है नीरज विशुद्धता वादी तो नहीं है किंतु सर्वप्रथम उन्होंने ही ग़ज़ल को गीतिका संबोधन दिया, नीरज के जैसा एक बड़ा वर्ग है जो साधारण बोलचाल की उर्दू के साथ हिन्दी में ग़ज़लें कह रहे हैं. डॉ. महेन्द्र अग्रवाल इसी वर्ग के शायर हैं आपने ग़ज़ल के तथाकथित गीतिका, मुक्तिका तेवरी (प्रवर्तक रमेश राज) एवं हिन्दी ग़ज़ल से आगे बढ़कर इस विधा को, नई ग़ज़ल के रूप मे प्रतिष्ठापना के लिए शोध प्रबंध लिखकर साहित्य जगत में अपनी स्वयं की सारस्वत पीठिका तैयार की है. नई ग़ज़ल की प्रतिष्ठापना में डॉ.अग्रवाल का योगदान साहित्य के इतिहास में सम्मान के साथ रेखांकित तो होगा ही एक अच्छे ग़ज़लकार के रूप में भी आपने अपनी विशिष्ट पहचान बनाई है. 1- पेरोल पर कभी तो रिहा होगी आग 2- शोख़ मंज़र ले गया  3- ये तय नहीं था,  4- बादलों को छूना ह,ै चांदनी से मिलना है ़ आदि स्तरीय ग़ज़ल संग्रहों के अतिरिक्त महेन्द्र अग्रवाल ने क़बीले की नई आवाज के माध्यम से उर्दू में ग़ज़लें कहकर भाषायी विज्ञता एवं सामंजस्य का परिचय दिया है.

समीक्ष्य ग़ज़ल संग्रह ग़ज़ल कहना मुनासिब है यहीं तक में डॉ.अग्रवाल की 58 ग़ज़लें सम्मिलित है. इन ग़ज़लों को पढ़ने पर लगता है कि आप पूरी तन्मयता, निष्ठा एवं ईमानदारी से ग़ज़ल को सजाने संवारने एवं उसे नई ग़ज़ल के रूप में स्थापित करने के लिए कटिबद्ध है. इसी आस्था अनुराग और प्रतिबद्धता ने उन्हें एक सशक्त ग़ज़लकार की हैसियत प्रदान की है. ग़ज़ल के प्रति आपकी यह कृतज्ञतामूलक स्वीकारोक्ति निम्नलिखित शेर में दृष्टव्य है.
मैं ग़ज़ल का शुक्रिया वर्षों अदा करता रहूं
हां इसी ने हैसियत दी और दमदारी मुझे
ग़ज़ल की खिदमत में डॉ.अग्रवाल को आनन्द की अनुभूति होती है. यह ग़ज़लकारी का ही परिणाम है कि आपके यहां साहित्य जगत की बड़ी बड़ी विभूतियां आती रहती हैं. 
ऐसा लगता है मुझे जैसे पयंबर आये
मेरे घर जब भी इकट्ठे हो सुखनवर आये
जो ग़ज़ल कभी माशूका और महबूब की रूमानी गुफ्तगू का पर्याय मानी जाती थी वही अब वैयक्तिक आत्मीय अभिव्यक्ति का प्रेम भरा इज़हार न होकर सामाजिक विद्रूपता का तीखा एवं पैना विरोध करने वाली व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति बन गई है. नई ग़ज़ल का यह लोकधर्मी संवाद सामाजिक पीड़ा एवं उसकी छटपटाहट का   प्रतिनिधित्व करता है. 
आज देश में भुखमरी, बेकारी, गरीबी, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार चरम सीमा पर है कभी स्व.राजीव   गांधी ने अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए स्वीकार किया था कि सरकार दिल्ली से एक रूपया भेजती है किन्तु आम आदमी तक पन्द्रह पैसे ही पहुंच पाते हैं. कभी इस सेवक ने भी लिखा था-
सौ चले गांव को दिल्ली से
पच्यासी जाते अटक बन्धु
खेतों को बूंद न मिल पायी
खुद बांध गया है गटक बन्धु
इसी सच्चाई को डॉ.अग्रवाल ने यूं कहा है-
निज़ामत बेअसर है या हैं क़ारिन्दे करिश्माई
उन्होंने रोटियां भेजीं, निवाले ही नहीं आये
गरीब और गरीब होता जा रहा है चारों और लूट मची है शोषणकारी अर्थपिशाच हो चुके हैं तभी संवेदनशील शायर कह उठता है-
बची कहां है यहां पत्तियां भी शाखों पर 
उखाड़ लीजिए पेड़ों की छाल बाकी है
और आगे देखिये शायर सत्ता को फटकरते हुए दो टूक सच्ची बात कहता है-
आपकी हम पर हुई अब तक महरबानी कहां 
रोटियां तो छोड़िये पीने को है पानी कहां 
आज जबकि दौलत के नशे में चूर शहरी लोग इन्सानियत का तकाजा भी भूलते जा रहे हैं वहीं हमारे ग्राम्य जीवन  हमारे संस्कार, रिश्तों की मिठास एवं आदर सत्कार की सुगंध से आज भी सराबोर है इसी भाव को डॉ. अग्रवाल ने बड़े सलीके से यूं प्रस्तुत किया है-
शहर में डाक्टर पढ़ते हैं केवल अर्थ की भाषा 
हमारे गांव में रिश्ते का मतलब दाई होता है
गांव की बदहाली पर आपने और भी अनेक अच्छे शेर कहें हैं, ये शेर भी देखिये-
नहीं आयी कहीं से रोशनी इनके कबीले तक
ये बच्चे गांव के हैं बेर को चमचम समझते हैं
गांवों की अपेक्षा आज शहरों में जीवन की जटिलतायें और उलझनें अधिक पेंचीदी और पीड़ादायक हैं इसीलिए घृणा, नफरत, मजहबी उन्माद एवं राजनैतिक दुरभिसंधियों की चिन्गारियां यहां अक्सर भड़क उठती है और अमन चैन खतरे में पड़ जाता है. हर संवेदनशील रचनाकार इन्सानियत भाईचारे प्रेम एवं आपसी सद्भाव की कामना करता है. डॉ.महेन्द्र अग्रवाल की यही कामना अघोलिखित शेर में देखी जा सकती है
कभी नफरत से न झुलसे मुहब्बत
मेरे मौला शहर आबाद रखना 
डॉ.अग्रवाल के इस समीक्ष्य ग़ज़ल संग्रह में कुछ प्रेम मुहब्बत की रागात्मकता भी दिखाई देती है इसी भावभूमि के ये शेर देखिये-
समय के साथ बहते हुए और यथार्थ का सामना करते हुए भी शायर ने अपना हाल ए दिल बयां किया है शेरों की मर्यादित भंगिमा दृष्टव्य है-
शम्मा तब ही शरमाती है
उस पर जब जब परवाने हों
यूं समय के साथ मुझको आजकल बहना भी है
बात दिल की ही सही पर आपसे कहना भी है
बला का हुस्न कि हरकत में हो अभी जैसे
किसी की चाह ने फूंकी है जान पत्थर पर
अंततः यही कहूंगा कि शायर समकालीन यथार्थ का ईमानदार एवं निर्भीक प्रवक्ता है. कहन का नयापन नई ग़़ज़ल की अवधारणा को सम्बल प्रदान करता हैं मैं पूरी दृढ़ता के साथ कह सकता हूं कि समीक्ष्य ग़ज़ल संग्रह की ग़ज़लें ग़ज़ल की चर्चा के साथ रेखांकित की जायेंगी मैं डॉ.महेन्द्र अग्रवाल को उन्हीं के एक शेर के साथ आशीर्वाद एवं हार्दिक बधाई देता हूं.
नयी जुबान, नया जिस्म, नये जेवर भी
नई ग़ज़ल है, नई है ग़ज़ल कहा पहले 
कृति ग़ज़ल कहना मुनासिब है यहीं तक/डॉ.महेन्द्र अग्रवाल/प्रकाशक-नई ग़ज़ल प्रकाशन शिवपुरी म.प्र./मूल्य 120 रूपये/

प्रबन्ध संपादक मोमदीप, पिसनहारी मढ़िया के पास जबलपुर म.प्र.

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